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मेरे मन की बात

मेरे मन की बात

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कभी चाह ना की मैनें महलों की,
जो मिला उसे गले से लगाया है|

परवाह ना की कभी अपनी भूख की,
पर हर भूखे को मैनें भोजन कराया है|

आज थी मुझे ज़रूरत की तू मददगार होता,
पर आज फिर तूने मेरी गरीबी का एहसास कराया है|

 


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