मैं तन्हा
मैं तन्हा
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हर दिन, हर रात, मेरे लबों पर था तेरा ही ज़िक्र,
पर जाने क्यों सताती थी मुझे, एक अंजान सी फिक्र,
कि खो जाओगे तुम, रहेगा हर तरफ सिर्फ नफरत का ही इत्र,
बंजर यह दिल का जहान, और ज़िन्दगी यह विचित्र
बरसती हैं यह नशीली मदिरा,
खुदा जाने इसमें हैं कैसा नशा
मन करता हैं इसे आजमा कर देख लूँ,
पर एक डर भी हैं, की कहीं मैं भी न खो जाऊं
जिसकी फिक्र थी, वो हकीकत में हुआ,
चली गई, छोड़कर मुझमें तन्हाई का धुंआ
राहें अलग हो गई,
जी रहे अब ज़िन्दगी नई
जिंदगी की राह से फिर, गुज़र रहे थे तन्हा..
तब अचानक तुमसे हो गए रूबरू
पर इस मर्तबा, मैंने ही मुँह मोड़ लिया
आखिर एक ही इंसान से कितनी दफ़ा ठुकराई जाऊं