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माँ की अन्तिम मुस्कान

माँ की अन्तिम मुस्कान

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मैंने पिरो लिए हैं सारे हरे मोती

एक बार फिर समेटकर

जैसे समेट लेती थीं माँ

अपने सम्मान को हर बार

पाँच बेटियों के दंश में!

बताती थीं आधा सत्य,

और आधा छुपा लेती थीं

भाग्य का दोष मानकर

या मानकर प्रारब्ध!

पर... हमें नहींं बताती थीं

उन्हें बताती थीं

जिन्हें हक़ ही नहीं था

पूछने का!

जिन्हें नहीं था सरोकार

हमारे पोषण से

या कुपोषण से!

शुद्ध शाकाहारी थीं माँ

स्वप्न भी चिर हरे थे उसके

हरे-हरे साग बनाती थीं

हरी-हरी फ्रॉक पहनाती थीं

और यहाँ तक...

कि मेरे बालमन को

अचंभित करतीं

कृष्ण को भी हरा ही मानती थीं

जय कृष्ण हरे जय कृष्ण हरे

हरे हरे भजन गुनगुनाती थीं

और...

एक दिन अचानक

उस हरे कृष्ण में ही लीन हो गईं

मैंने गौर से देखा था

उन्हें जाते हुए

हरे हरे होंठों से मुस्काई थीं माँ

आखिरी बार।।


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