कुछ डर कर
कुछ डर कर
आज फरिश्ते भी हमारी किस्मत पर नाराज़ हैं,
भाग्य बदलने की ताकत जो टूट गयी उनकी।
उम्मीद का तिलस्म, कांच की तरह टूट कर चुभ रहा है,
समय भी हार कर बैठ गया, अब क्या ठीक करे वो?
अब बिकाऊ अन्तर्मन मान चुका कि सब लिखा हुआ है।
लेकिन फिर जीने में मज़ा ही क्या रहेगा अगर ये माननीय हो?
अगर सब रंगमंच पर किसी के निर्देशन पर चल रहा है,
तो इसमें कला प्रदर्शन पर किसी का अंकुश नहीं।
हमने भी एक कला बड़ी खूब सीखी है - हार न मानाने की,
आज आईने को कह दिया कि - "तू मायावी है, ये पराजयी मुख मेरा नहीं"
जब बहादुरी का मुखौटा पहन ही लिया है तो क्या सिकंदर क्या मैं?
पराधीन तो वो भी हुआ अंत में, मैं पर्यायी पथ का चालक हूँ।
तलवार खींच कर मैं भी मैदान-ए-जंग पर डट गया हूँ।
भय से आत्मा काँप रही है, पर हाथ नहीं कापेंगे अब,
डर को अब सखा बना कर, दुनिया को डराना सीख लिया है।