कशमकश
कशमकश
जैसे रात को सुबह मिल जाए
जैसे हर ज़ुस्तज़ू रास आ जाए,
चलती बहती कश्तियों में शोर कहीं रम सा जाए
कहीं दूर थी जो मंजिल अब कुछ धुंधली होकर
अनसुनी बातें कर जाए।
कुछ मोगरें के मुर्झाए फूलों की सुगंध से यों मंद मंद मुस्काए
जैसे कुछ अलग अजब सी कोई गाथा गुनगुनाए
हवा जो कानों को सुनाती कभी कुछ फुसफुसाते गुज़र आए
वो अब खिलखिलाती हंसी को महकतें ख्वाबों में छुपाकर इठलाए।
जो सरसराती कभी कुछ बुदबुदाती पत्तियों की बोली पर गौर करती थी कभी ,
जो आंखों में नमी लिए फिर वही कहें अनकहे किस्से दोहराती थी रहीं,
कभी बात बें बात अपनी बातें मनाएं,
वो जो कल थी कहकर चुप हो कर ,कई नई कहानी सुनीं सुनाएं।
हां अब वो वक्त बेवक्त हंस कर कुछ मनाएं बहलाएं
पाबंद शब्द रग रग से राग कोई अलपाएं
बस बात बेवक्त मन को यों घेरें जाएं।
फिर यूं खुद हीं खुद को बहलाते फुसलातें
कई नयी आस है अभी यें मन को भी समझातें
कहीं अनकहीं यादों में रम जाएं।
