एक कहानी मेरी ज़ुबानी।
एक कहानी मेरी ज़ुबानी।
कोई पूछे तो हम बतलाएंगे क्या?
कि जो हर्फ-दर-हर्फ सुनती थी कहानियां
जो सुब्हेशाम गुनगुनाती थी धुन कई सवालों की
न कोई तव्वज़ा थी ना ही ग़म-ऐ रूसवाई
थी तो बस दिलो-दिमाग की सुनवाई
चहचहाती चिड़ियां की तरह थी सारी यादें
याद शहर की कोई बात रही हो जैसे।
बनते-बिगड़ते बढ़ती रही हो जैसे
शायद कुछ बचीं शामें जीतती रही न जानें।
करती रही जद्दोजहद न मानने की
थोड़ी ज़िद्दी सी रही हो ये कौन जाने।
पता नहीं क्या सोचतीं-समझतीं रहतीं थीं खुद में
अभी तो उम्र का हिसाब भी नहीं कर पातीं मानों
उस बरस नई कहानी सुनीं थी ना जाने।
बड़ी-बड़ी कहानियां लिखने लगीं थीं तभी से,
अजीब ही थे शब्द और बनावट की ज़बानी...
कुछ सवालों की कशमकश में भी थी शायद से
धुंधला सा रहा था आसमां ...या चल रही थी हवा।
कुछ ऐसा ही रहा होगा।
अब जो था वो रहा नहीं
मिला एक और कहानी का सितमगर,
फिर से नई कहानी शुरू हुई हो जैसे,
फिर से वो सवालों के जवाब ढूंढ़ती रही हो जैसे।
शायद एक साथ जो छूट गया था तब,
इस बार फिर से छूटा हो जैसे।