कमीज़
कमीज़
मेरी कमीज़ मुझसे कुछ सवाल करती है
हर रोज़ यह एक नया बवाल करती है
वो पूछती है, तू किस हक़ से मुझे धोता है
क्या तुझे मालूम है, मुझे कितना दर्द होता है
कभी देखा है तूने अपने गिरेबां में झाँक कर
कई धब्बे हैं तेरे दिल और दिमाग पर
हाँ कोई भगवा पहन के करता मुझे बदनाम है
कुर्ता पहन के भी वो करता कई क़त्ल-ए-आम है
पर जो गोली थी चली निकली तेरी बंदूक से
ख़ंजर तलवारें भी निकली तेरी संदूक से
इल्ज़ाम फिर कैसे भला पहनावे पे आने लगा
कुछ कमीज़ो को बुरी नज़रो से देखा जाने लगा
फिर एक बुरी घटना घटी, किसी मासूम की इज़्ज़त लूटी
सूना हुआ आंगन किसी का, किसी खेत की फसल कटी
वो किसी की थी बहन, या किसी की बेटी थी
जुर्म उसका था बड़ा के कमीज़ उसकी छोटी थी
क्या यही थी वजह के वो फूल था कुचला गया
फिर दो साल की बच्चियों को क्यों मिली उसकी सज़ा
खेलते हो हर दफ़ा तुम क्यों मेरे जज़्बात से
दाग कुर्ते पे लगा तुम जाहिलों के हाथ से
जो लगा साबुन तो एक दिन दाग यह मिट जाएगा
पर जो तेरी सोच में है क्या कभी मिट पाएगा
अपने जुर्मों का तू मुझपे इल्ज़ाम देना छोड़ दे
इतनी ही बुरी हूँ मैं तो कमीज़ पहनना छोड़ दे