किसान- मानवीयता की प्रतिमूर्ति
किसान- मानवीयता की प्रतिमूर्ति
नतमस्तक हो जाएँ तेरे सामने,
जन्मदाता तू पालनकर्ता,
तेरा जीवन आदर्श भरा,
देता है अच्छी सीख जीवन में।
झुलसती गर्मी हो या ठिठुरती सर्दी-
तन तोड़ मेहनत में लीन है तू।
घनघोर वर्षा में भी तेरा शरीर,
पसीने से तर जाता है सदा।
स्वयं भूखा रहकर हमेशा,
औरों को खिलाने में व्यग्र।
औरों के चेहरे की हँसी से
पुलकित होता है मन तेरा।
कृत्रिम सुगन्ध का लेपन नहीं,
कीचड़ का लेपन है शरीर में।
हवा, पानी, मिट्टी है तेरे सहचर,
शोषित वंचित हमारा साथी।
अंकित है तेरा बिंब हमारे हृदय में,
फटी पुरानी धोती तन पर,
पगड़ी सिर पर है प्रकृति की,
अति सार्थक तेरा ‘हलधर’ नाम।
सपने नये छाते हैं तेरे अंतकरण में,
खेत की मन मोहक हरियाली देखकर,
मिट्टी का गंध तेरे लिए-
ऊर्जा प्रदान करता है अविरल।
तू करता है संवाद प्रकृति से,
विश्वास है प्रकृति धोखा नहीं देती।
पारिस्थित्क सजगता केवल बोलबाला नहीं,
कूट कूट कर भरी है तुझ में।
कृषि संस्कृति तो श्रेष्ठ संस्कृति है।
पुण्य संस्कृति है पुरातन,
सौंपी जाती है यह संस्कृति,
पीढ़ी- दर- पीढ़ी पवित्रता से।
तू जानता है जीने की कला,
प्रकृति से तालमेल होकर ।
प्रकृति तेरे लिए माँ है,
जिसने तुझे दिया है वरदान।
तू करता है काम, मिलकर साथियों से,
मज़े से गाता है तू साथियों के साथ।
फसल काटने में तल्लीन होकर,
संजोता है अनेक सपने जीवन के।
प्रसन्न होता है श्रम- फल देखकर तू,
झट भूल जाता है अपनी गरीबी,
जैसे बच्चे का चेहरा देखते ही,
माँ भूल जाती है प्रसव पीड
़ा।
डाइनिंगहॉल, ए.सी, कूलर नहीं,
खेतों की मीढ और खुली हवा ही है।
बहुमंजिला बंगला नहीं सोने को,
फूस के छप्पर वाली झोंपड़ी ही काफी।
कृषि संस्कृति गुज़र रही है,
आज की नवीन पद्धतियाँ खेती की,
परिस्थिति तंत्र के लिए विनाशकारी।
तेरे लिए भी ये चुनौतिपूर्ण हैं।
बदल रहा है जीवन का चित्र तेरा,
खेती व्यवस्था में आयी नवीनता।
बढती है परिवर्तन की विह्वलता,
शुरुआत है कीटनाशकों के प्रयोग की।
गोबर, राख, सडे पत्ते को हराकर,
आ गये हैं पोटाश्यम, फोस्फेट, यूरिया ।
जैव कीटनाशकों की मृत्यु हो गयी है,
रासायनिक कीटनाशकों का बोलबाला है।
बुरा असर डालता है यह स्वास्थ्य पर,
ले जाता है, अकाल मृत्यु की ओर,
देशी बीज का बहिष्कार हुआ है,
घुस गया है, आयातीत संकर बीज ।
शोषित है तू साहूकार- व्यापिरियों द्वारा,
हाशिएकृत बना दिया है तुझे।
ज़मीन की तैयारी से फसल काटने तक का-
असल हक़दार तो तू ही है।
अब कृषि संस्कृति पर पड़ा है -
प्रभाव बाज़ारी संस्कृति का।
यह विकास तो खेती का नहीं,
लाभ जुटानेवालों का विकास है।
चुप्पी साधने में विवश है तू,
अंधेरा छा जाता है आँखों में,
ढूँढता है मार्ग आत्माहूति का,
छोड़ता है परिवारवालों को अनाथ।
हाशिएकृत तेरी स्थिति में-
बदलाव का आभास होने लगा है।
मुख्यधारा की ओर प्रस्थान होगा तेरा,
शासक और समाज पर निर्भर है यह।
हे दुनिया का सेवक सर्वश्रेष्ठ!
सहयोगी बने हम अपने अन्नदाता के।
लघु मानव, नारे लगाएँगे तेरे लिए,
मानवीयता की मूर्ति, तेरे के लिए।
“ जय जवान जय किसान”