खोज, अपने गुरू की
खोज, अपने गुरू की
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नहीं मैं एकलव्य,
ना ही मैं हुँ अर्जुन..!
आतुर हो रहे कर्ण मेरे,
पदचाप सुनने अपने गुरू की..!!
राह तकती ये नजर,
आँख भर आयी ये मेरी..!
आतुर हो रहा मन मेरा,
परछाई देखने अपने गुरू की..!!
नतमस्तक हुँ मैं शीश नवाँ,
कंठ हो रहा है रुंध..!
मानवंदन को रहा आतुर,
चरणधूली सजाने अपने गुरू की..!!
क्या मिल पायेगा इस जनम,
स्पर्श उनका अपने सर पर..?
क्या देख पाउँगा इस जनम,
साक्षात स्वरूप अपने गुरू की..??