जिन्दगी
जिन्दगी
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सुबह-सुबह जिन्दगी
कुछ खाली सी लगी,
बोझ सहते-सहते
खुद से ही सवाली सी लगी.
इन्सानियत की
नीति मुझसे पूूूूछती है,
क्यों अब तुुम्हें ये
जिन्दगी भारी सी लगी.
धूप की नरमी में जिन्दगी
लाली सी लगी,
खुद की जिन्दगी अब मुझे
जाली सी लगी.
बेवसी की आंंख मुझसे
पूछती है,
क्यों अब तुम्हें ये जिन्दगी
हारी सी लगी.
अन्याय के दुर्गंध
से जिन्दगी नाली सी लगी,
वन में भटकते
बंदरो के जैैसे मवाली सी लगी.
सांस का हर मधुर गीत
मुझसे पूछता है,
क्यों अब तुुम्हें ये जिन्दगी
गाली सी लगी.