गुमसुम
गुमसुम
मेरी शाम आज गुमसुम है, कुछ बेपरवाह सा मौसम है
चलते-चलते ख़ुद को कहीं दूर छोड़ आई
रस्ता तो चलता रहा, मैं क़दमों को मोड़ आई
ये जाने कहाँ मैं आई, न तू है न तेरी परछाई
नहीं आँखें मेरी नम नहीं, न तुझसे कोई गिला है
तेरा मुस्कुरा के अलविदा कहना क्या कम है!
मेरी शाम आज गुमसुम है, बड़ा बेपरवाह सा मौसम है|
अभी वक़्त लगेगा थोड़ा, ख़ुद को समझाने में
कुछ साल लगेंगे शायद यादों को भुलाने में
मालूम नहीं कैसे पर दिल को मना लूँगी
दुनिया को भनक न हो, हँस कर उम्र बिता दूँगी
बस इतना ही दिलासा है, इनकार नहीं करना
मरने से पहले तुम से इक बार तो मिल लूँगी
ये सफ़र न होगा पूरा तुम को भी ख़बर थी
फिर भी तुम साथ चले, अब तक, क्या कम है?
मेरी शाम आज गुमसुम है, बड़ा बेपरवाह सा मौसम है
कुछ दिन और ठहरते तो, थोड़ा सुकूँ मिलता
अपना हाल सुना पाती तो, थोड़ा सुकूँ मिलता
मेरी बेबसी का तुमको मैं सबब तो दे देती
मुझे याद नहीं करोगे तुमसे ये वादा तो ले लेती
तेरे मुड़ जाने के बाद , ये आया मुझे याद
तेरी जगह न कोई लेगा, ये बात तो कह देती
बस ख़ुद से ही शिकायत है, तेरी यादें तो बेहद हैं
और जीने के लिऐ तेरी उम्मीद ही क्या कम है!
मेरी शाम आज गुमसुम है|