गुमशुदा शर्म
गुमशुदा शर्म
उठकर गिरी जो चीज़, दिखी ना कहीं
बहुत खोज़ा-ढूंढ़ा, मिली ना कहीं,
थकहार कर जब मैं, गम से बोझिल हुआ
मौत को पुकारा, पर उसने भी ना छुआ,
व्याकुल था मन, दिल भी बेचैन था
सुन्दर थी चीज़, वाह क्या रूप था,
बवन्डर थे ख्वाब, उमंगे, बुझी-बुझी थी
उस चीज़ का शबाब, चांदनी, कटी-कटी थी,
रूह भी बेचैन, आत्मा ने उसे पुकारा
कि कहां खो गई तू, अब ये तड़पे बेचारा,
अरे पश्चाताप के आँसू, इसे रूला रहे हैं
अंधेरे के नाग भी, इसे बुला रहे हैं,
भूल हो गई इससे, तू जो गिर गई
गिरकर अधरों से इसके, तू जो बिखर गई,
जब वक्त ने समय के कांटे को, पकड़ने ना दिया
उपर से मौत पुकारे, आ जा अब तो पिया,
दिन बीता, साल बीता, बीत गया ज़माना
मिलने का उसने अबतक, ना ढूढ़ा कोई बहाना,
आया वो दिन, कफ़न मिला, लिपटी जो उससे ज़िन्दगी
पुकारे प्यार था उसको, बची अबतक थी दिल्लगी,
रो रहा हूँ मैं, बिलख रहा हूँ मैं, आ सके तो, तू मिल जा,
ज़ख्म जो तुझसे, मिले है, अंतिम बार तू, सिल जा,
ज़नाजा मेरा जब निकला, तो पीछे दुनिया बड़ी थी
मिली मौत में भी खुशी, जो पीछे, वो खड़ी थी,
खड़ी आदमियों के बीच, बेशर्म लगी,जो च़ीज मुझसे गिरी थी
नहीं-नहीं, बेशर्म नहीं,वही तो गुमशुदा शर्म मेरी थी।
गुमशुदा शर्म मेरी थी।।