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गुमनाम होती इंसानियत

गुमनाम होती इंसानियत

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कंधे पे खुद के, खुद को, ढो रहा है आदमी

खाता है रोज चोट, रो रहा है आदमी।

 

माँ-बाप बूढ़े होते ही लाचार हो गए

कुत्ते-बिल्ली आज रिश्तेदार हो गए

हर रोज याद्दाश्त खो रहा है आदमी

खाता है रोज चोट, रो रहा है आदमी।

 

इक बेटी माँ की ममता से लाचार हो गई

लथपथ शरीर खून से कूड़े में है पड़ी

बेटी के खून हाथ धो रहा है आदमी

खाता है रोज चोट, रो रहा है आदमी।

 

आतंकवाद क्रूरता की हद पे आ चुका

राक्षस की तरह मारता, बूढ़ा हो या बच्चा

देखो अपना अस्तित्व खो रहा है आदमी

खाता है रोज चोट रो रहा है आदमी।

 

इक भिखारी मंदिर के द्वार मर रहा भूखे

जो खुद है धनवान(भगवान) उसे पकवान चढ़ाते

ये किस उन्नती के बीज बो रहा है आदमी?

खाता है रोज चोट रो रहा है आदमी।

 

हर रोज एक निर्भया चिता पे जल रही

'रणधीर' इंसान की रूह फिर भी ना पिघल रही

क्यूँ कुंभकर्ण की नींद सो रहा है आदमी

खाता है रोज चोट रो रहा है आदमी।


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