गृहणी की मनोदशा
गृहणी की मनोदशा
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मन ही मन मुस्करा रही थी,गुनगुना रही थी
पर साथ ही कमी थी जो जीवन में
याद आ रही थी।।
वह कमी थी अपनी खुद की पहचान की,
अपने स्वाभिमान की
जो शायद छूट गया पीछे कहीं
जब से दबती रही बोझ तले।।
कर्तब्यों और जिम्मेदारियो के बीच
खो गई अपनी पहचान कहीं
सपने देखे थे कि शायद
मै ये करती,शायद मै वो करती,
पर आज मै कुछ न होकर
एक गृहणी बनकर रह गई।।
चूल्हे-चौके के बीच सिमट कर
रह गई जिंदगी,सबको खुश रखने
के बीच रह गई जिंदगी।।
आज मै कुछ न होकर एक
गृहणी बनकर रह गई।।
