एक रात
एक रात
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एक रात मैं अपने घर से निकला,
जनवरी का महीना था, ठंड बहुत भारी थी।
पुराने मोहल्ले में सुनसान सड़क पर,
डेढ़ बजे उधर से वो आ रही थी।
बैग लेकर, आई- कार्ड पहनकर,
और शायद उसकी यूनिफॉर्म साड़ी थी,
सहमी सी अंधेरे में चलती हुई,
शायद वो अपने ऑफ़िस से आ रही थी।
रात में जाना दुनिया को नागवार गुजरता है,
और वैसे भी वो तो अकेली नारी थी।
सड़के तो कभी महफूज़ थी ही नहीं,
पर शायद वो भी वक़्त की मारी थी।
