एक मोर अलग सा ....!
एक मोर अलग सा ....!
प्रकृति ने जिसे अलग बनाया
ऐसा एक मोर संसार में आया
नन्हा था, अलमस्त था रहता
दुःखों से अनजान परे था
गाता रहता, खेला करता था
खुले वन में घुमा करता था
वो क्या जाने वो कैसा था?
सब जैसा या उनसे अलग था?
एक समय फिर वो भी आया
झूम कर उस पर यौवन छाया
कुदरत ने बख़्शी मोहनी काया
सुंदर पंखों से उसे खूब सजाया
"कई मोरनियाँ तुझ पर मरती होंगी?
पास आकर हर्षित करती होंगी!"
ऐसा अकसर सुना करता था
ऐसा नहीं था, सोचा करता था
फिर उस बरस जब बदरा छाए,
दूजा मोर देख उसने पंख फैलाए!
ये क्या हुआ, ये क्यों हुआ न जाने
हैरान परेशान थे दो मोर दीवाने!
और फिर एक वक्त वो भी आया
जब ये राज़ किसी से छुप ना पाया
मोर की मोर ही से हो प्रीत?
यह कैसी उलटी चली है रीत?
"तुझे खुद को बदलना होगा
तय नियमों पर ही चलना होगा"
क्या जवाब देता वो बेबस था
दम घुटता था, जीवन नीरस था
बेरहम हैं सब, कहाँ खबर थी उसको?
मिलेगी यूँ सजा, कहाँ इल्म था उसको?
बेदर्द था समाज वो समझ न पाया
उसके पंखों को सबने नोच गिराया!
आँखें दिखाईं, फिर फ़रमान सुनाया
लहूलुहान किया और अट्टहास लगाया!
वो जब टूटा, जब ज़िंदा लाश बनाया
तब जाकर कहीं चैन उनको आया
कसूर उसे अपना फ़कत ये समझ आया
वो मोर था, मोर ही में साथी पाया
सुशोभित था कान्हा के मुकुट में
पर अपनों में जगह बना न पाया!
ये कैसे बंधन, ये कैसी सरहदें ?
जब सब उसके, फिर क्यों नफरतें ???