दरकन
दरकन
पृथ्वी हो या औरत,
तमाम हलचल लिये रहती अंतस में,
और सपाट स्थिरता दर्शाती सतह पर
तप्त लावा सी शक्ति
संरचना के अनुरूप संजोती
परत-दर-परत शैशव काल से ही
कर्तव्यों के शैलखण्डों से दबी,
परिवार, समाज से प्रदान
सरंध्रों से श्वास लेती,
इज्ज़त,आबरु संस्कार के
खनिज निर्मित चट्टान ढोती,
जिनमें कुछ
आग्नेय की तरह कठोर जिसे
भेदना नामुमकिन सा,
कुछ कायांतरित आडम्बरों की
मानिंद परिवर्तित हो कर भी हावी,
तो कुछ अवसादी भुरभुरी
मिट्टी की भांति अस्थायी
इन सभी को ओढ़े करती निर्वहन
मन से या बेमन, तो कभी कभी
लावा जमाकर संभालती ,
बढ़ जाता ये दबाव हद से फट
पड़ती विस्फोट कर
और दरकती चट्टानों के बोझ से ,
फूट पड़ती आँसुओं में या कभी
मस्तिष्क के तंत्रिकाओं को फाड़ती
घिर जाती हैं
लावा के अवसाद में ,
कभी न निकलने वाले काले
धुप्प अंधेरे में
सारे रिश्ते नाते को धत्ता बताती।
और ये है दरकती लावा ।
