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Anisha Jain

Others

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दीपक की आत्मकथा

दीपक की आत्मकथा

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मैं धरती- पूत, अग्नि-पूत

अग्नि का ही निवास हूँ,

मुझे अम्बर से क्या?

अपने छोटे- से संसार का

उजाला बनकर संतुष्ट हूँ मैं।


कुम्हार के कोमल- कठोर

कर- कमलों ने

निराकार मिट्टी से मुझे जन्मा,

भूरी उँगलियों ने भूरी मिट्टी को

तराशा

अंगारों ने कोमल भूमि को परखा,

और जानकी- सदृश मैं

अग्नि परीक्षा से कठोर हो निकला।

 

कठोर हो निकला मैं, इतना कठोर

कि अग्नि- पुत्र से मैं अग्नि- पिता

बन चला,

श्वेत मेघ मेरा सुनेहरा लहू पीकर

जल- दाता से अग्नि- दाता बन गया,

स्वर्णिम पावक से कांतिमय हो उठा।

 

मैं अपना रक्त बलिदान कर

संसार को आलोकित करता रहता हूँ ,

सैनिक की भाँती

अंधकार से लड़ता रहता हूँ ,

जलते- जलते मृत्यु को शरणागत

हो जाता हूँ।

 

किन्तु मैं कई जन्म- मृत्यु- चक्रों से

गुजरता हूँ

झुलसा हुआ स्याह- रंगी कपास हटाकर

नई श्वेत बाटी डाल जब मुझमे स्वर्ण

रक्त भरा जाता है ,

तब मुझे नवजीवन मिलता है,

मैं प्रसन्न हो उठता हूँ ,

नव- अग्नि से पुनः विश्व को जगमगा

देता हूँ ।


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