दीपक की आत्मकथा
दीपक की आत्मकथा
मैं धरती- पूत, अग्नि-पूत
अग्नि का ही निवास हूँ,
मुझे अम्बर से क्या?
अपने छोटे- से संसार का
उजाला बनकर संतुष्ट हूँ मैं।
कुम्हार के कोमल- कठोर
कर- कमलों ने
निराकार मिट्टी से मुझे जन्मा,
भूरी उँगलियों ने भूरी मिट्टी को
तराशा
अंगारों ने कोमल भूमि को परखा,
और जानकी- सदृश मैं
अग्नि परीक्षा से कठोर हो निकला।
कठोर हो निकला मैं, इतना कठोर
कि अग्नि- पुत्र से मैं अग्नि- पिता
बन चला,
श्वेत मेघ मेरा सुनेहरा लहू पीकर
जल- दाता से अग्नि- दाता बन गया,
स्वर्णिम पावक से कांतिमय हो उठा।
मैं अपना रक्त बलिदान कर
संसार को आलोकित करता रहता हूँ ,
सैनिक की भाँती
अंधकार से लड़ता रहता हूँ ,
जलते- जलते मृत्यु को शरणागत
हो जाता हूँ।
किन्तु मैं कई जन्म- मृत्यु- चक्रों से
गुजरता हूँ
झुलसा हुआ स्याह- रंगी कपास हटाकर
नई श्वेत बाटी डाल जब मुझमे स्वर्ण
रक्त भरा जाता है ,
तब मुझे नवजीवन मिलता है,
मैं प्रसन्न हो उठता हूँ ,
नव- अग्नि से पुनः विश्व को जगमगा
देता हूँ ।
