छोड़ आया हूँ
छोड़ आया हूँ
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ए मंजिल तेरे वास्ते मंजर छोड़ आया हूँ,
तेरी गलियों में रहने अपना शहर छोड़ आया हूँ।
कुछ तो हक़ बनता है तेरे रेत पे ए किनारा,
वो लहर हूँ मैं जो समंदर छोड़ आया हूँ।
कहते हैं लोग कितना समझदार हो गया मैं,
क्या बताऊँ बचपन को घर छोड़ आया हूँ।
खुशी में न सही जरूरत पे याद आऊंगा,
जमाने के जहन में वो असर छोड़ आया हूँ।
ताकते रहेंगें मेरी राहें आखरी साँस तक वो,
आंखों में उसकी ऐसा नजर छोड़ आया हूँ।
ताज़ा रहने को मेरी यादें जिंदगी भर के लिए,
दिल के पिंजरे में उसकी कुछ पर छोड़ आया हूँ।
दबा होता है इक दरिया बर्फ की चट्टान के नीचे,
ऐसा नहीं कि मैं इन आँखों को बंजर छोड़ आया हूँ।
खुशियों का दौर कहाँ लौट आएगा "विकाश" के सहर में,
गलियों में उसके मैं एक भटकता शायर छोड़ आया हूँ।