अंततः आदमी नरहिए जैसा हो जाता
अंततः आदमी नरहिए जैसा हो जाता
हवा नहीं चल रही थी,
चारों ओर सन्नाटा जैसा था
पर दूर-दूर तक
जहाँ तक मेरी नज़रें देख सकती थी,
चार महिला, कुल चार महिला
अलग-अलग खेतों में काम कर रही थी
और उन चार महिलाओ के कारण
यह सुनसान सी चौरी
मुझे सन्नाटे जैसा नहीं लगा।
मैं वहीं खेत कि आड़ी पे बैठ गया
यह सोचकर कि कुछ देर में हवा तो बहेगी ही
गाँव के अंदर तो और गर्मी थी
बादल लगते थे, गरजते भी थे
पर न जाने क्यूँ, कई दिनों से बरसते नहीं थे।
दूर उन चार महिलाओं को काम करता देख
लग रहा था, ख़ाली आसमान में चार तारे टिमटिमा रहे है।
मैं उन्हें देखता रहा,
जब तक कि वे अपना-अपना बोझा उठा चली नहीं गयी,
उनके जाने पे अचानक से मेरे सामने अंधेरा आ गया था।
शाम हो चूँकि थी
देर शाम को नरहिए की आवाज़ जंगल भर में गूँजने लगती,
यहाँ तक कि गाँव में भी नरहिए की आवाज़ डराती
गाँव में यह कहावत थी कि
एक बार नरहियाँ काट ले तो आदमी उसके जैसा ही
बोलने लगता है।
इस ख़्याल ने मुझे अचानक से डरा दिया।
सुनसान सी चौरी और गाँव के बीच एक जंगल भी था
रात को या देर शाम को जंगल से गुज़रने पर अपनी
पैरों की आवाज़ भी डरा देती।
मैं तेज़ी से गाँव की ओर लौटने लगा
रास्ते भर झींगुर की आवाज़ मेरे कानों में पड़ती रही,
मैं अपने आप में ही कुछ-कुछ बोलता हुआ
तेज़ी से गाँव लौट रहा था
ऐसा करने से डर थोड़ा कम जाता है,
हवा अब भी नहीं चल रही थी
गाँव में तो और गर्मी होगी।