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अधूरे रहे प्रेम की

अधूरे रहे प्रेम की

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"मैं तुम्हें टूटकर 

चाहती हूँ।"


हँस रहे हो न तुम सुनकर, 

सोच रहे हो-

"न कभी फोन,  

न मैसेज,  

अपने पति एवं बच्चों के साथ 

बेहद खुश!


फिर भी दावा....  

टूटकर चाहने का!


हाँ एक वक्त था,  

जब तुम मुझे चाहती थी,

मेरी आवाज सुने बिन 

एक दिन न रह पाती थी,  

कहती थी-

"मर जाओगी मेरे बिन" 

और तो और,  

दुनिया की परवाह छोड़

विवाह के पहले ही

तुम सम्पूर्ण रूप से मेरी हो चुकी थी,  

न जाने फिर क्या हुआ!


तुम मुझसे दूर होती चली गई,  

मैं तुम्हारे स्पर्श के अहसास में डूब 

रहा था। 


यकायक तुम किसी और के बंधन में बंध गई। 

फिर कभी न मिली, 

तुम्हारी जिस सहेली के घर 

हम 

दो जिस्म एक जान हुए थे,  

एक दिन उसी से खबर मिली,  

"भूल जाओ उसे,  

वह अब किसी और की हो चुकी है।

अपने जनक से किया वादा निभा चुकी है।"


तुमने मुझसे कोई वादा तो नहीं किया था,  

किंतु 

तुम्हारा दैहिक समर्पण 

क्या किसी वादे से कम था?

तुम उसे तोड़ चुकी थी....  


मैं अकेला तुम्हें याद करके क्या करता? 

भुला दिया मैंने तुम्हें ।।।।


अब मैं बहुत आगे निकल आया हूँ।"


तुम्हारे ये अनकहे शब्द 

तुम्हारे कहे चार शब्द, 


"बहुत याद आती हो।"

पर बहुत भारी है। 

तुम्हें आज भी झूठ बोलना नहीं आता। 


मैं तुम में समाकर 

पूर्ण हो गई थी। 

यदि सम्पूर्ण पा लेती तो 

प्रेम अपूर्ण रह जाता। 


नहीं समझे न 

चलो, नदिया के किनारे चलकर समझाती हूँ,  


ये दोनों कभी एक दूसरे से नहीं मिलते,  

इसीलिए 

एक दूसरे की कमी,  

(सब हड़प लेने की आदत)  

से अंजान है। 


मिल जायेंगे तो 

एक दूसरे के लिए तड़पेंगे नहीं,   

बस, नया संसार बनायेंगे,  

जहाँ वे किनारे नहीं

सागर कहलायेंगे। 

नहीं,  

विशाल सागर में मुट्ठी भर जलराशि। 


मैं अपने अनंत रिश्ते को 

बेनाम करके 

नया नाम नहीं देना चाहती थी,  

तुम्हारी कमियों को जानना नहीं चाहती थी,  

तुम्हारी अच्छाइयों की छाँव में 

ताउम्र सुस्ताना चाहती थी,

(यह केवल तब मुमकिन था जब हम एक न होते)


समझ गए होंगे तुम 

तुम्हें न पाकर भी 

मैं कैसे खुश हूँ, 

तुम्हें खोकर भी, 

कैसे मैं आज भी,

तुम्हें टूटकर निर्विघ्न चाहती हूँ,  


यह अधूरे रहे प्रेम की 

सकारात्मकता नहीं है 

तो और क्या है?


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