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अभिलाषा की निराशा

अभिलाषा की निराशा

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मैं कृष्णा बनूँ कन्हैया नहीं; रघुराम बनूँ सिर्फ राम नहीं |
बनना है तो बनूँ महात्मा; लूँ गाँधी का सिर्फ नाम नहीं ||

जो पढूं, मैं कलमा सिर्फ कलाम का; किसी मौलवी की कुरान नहीं|
जो तर्क करूँ तो अर्जुन सा मैं; वाचूँ गीता का ज्ञान नहीं ||

जो बनूँ मैं योगी खुद को जानूँ, सम्प्रदाय का नाथ नहीं |
जो बनूँ वाम तो कर्म करूँ मैं, दुशाशन की शान नहीं ||

मैं बनूँ तो मुल्ला बुल्ले शाह सा, फतवाओं का धिक्कार नहीं |
जो शस्त्र उठाऊँ तो नैतिकता का, दुर्योधन का संग्राम नहीं ||

पढूं लिखूं जो अम्बेडकर सा, आडम्बर का ज्ञान नहीं |
जो लूँ प्रतिज्ञा तो भीष्म सी; गाऊँ आप के गुणगान नहीं||

मैं हारा वो कैसे जीता, मैं जीता वो कैसे हारा|
बंद आँखों से सब कुछ दीखा, जो खोली आँखे अँधियारा||

मैं हूँ सच्चा तू हैं झूठा, मैं हूँ ज्ञानी तू है अँधा|
धर्म, जात और तू-तू मैं-मैं का है ये धंधा||

जब नाश मनुष्य पे छाता है, पहले विवेक मर जाता है|
सौभाग्य न कभी सोता है, देखो आगे क्या होता है|

मुमकिन है मैं जीत जाऊं, इस धरम युद्ध में, इस राष्ट्र युद्ध में;
पर अंतिम युद्ध में, सेज शय्या पर, जब रह-रह काल पुकारेगा|
इस जीवन का चिट्ठा पत्रा, सही गलत सब याद आ जायेगा;
तेरा खुद का खून, जीवन का प्रेम, तुझको आग लगाएगा|


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