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मेकअप का बक्सा

मेकअप का बक्सा

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आवाज दे कहाँ है ...दुनिया मेरी जवां है ...आबाद मेरे दिल में उम्मीद का जहाँ है ...

नूरजहाँ का गाना सीडी पर बज रहा था और अम्मा मंत्रमुग्ध सी सिर हिलाते हुए ध्यान से सुन रही थी। इन दिनों श्रवण शक्ति कुछ कम हुई है पर पुराने गाने सुनने की लालसा और बढ़ गई है, जब भी गाने बजते हैं, अम्मा को लगता है कहीं से शहद का मीठा सोता फूट गया हो और धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ता जा रहा हो ...उस मिठास में वे डूबी जा रही हों ऐसा ...ऐसा अलौकिक आनंद तो उन्हें पूजा में भी नहीं मिलता। उन्हें इस तरह मंत्र-मुग्ध सिर हिलाते देख रेवा ने मुँह बिचकाया इस बुढ़ापे में भी इनके शौक पूरे नहीं होते कब्र में पैर लटकाये बैठी हैं पर गाने सुनने के लिये सोलह साल की लड़की बन जाती हैं।

सच बात है कुछ बातों में अम्मा का सोलहवां साल रुक गया था। संगमरमर सी शफ्फाक देह और डाई किये हुए काले बाल, सलीके से पहनी हुई साड़ी, हल्की सी लिपस्टिक और गालों और नाक पर बड़ी एहतियात के साथ लगाया गया रूज़ न कम न ज्यादा बिल्कुल बराबर कि मात्रा। उन्हें देखकर कौन कहेगा कि वे अस्सी की उम्र पार कर चुकी हैं। वे अभी भी किसी महारानी से कम नहीं लगती, उनका कहना है भई यह रूज़ न हो तो मजा ही क्या है, यह जीवन का रंग बढ़ा देता है  मानो सारे शरीर का खून चेहरे पर जमा हो गया हो चेहरा और जीवंत हो गया हो ..उनका मिलने का अंदाज भी बड़ा जीवंत होता है, गले लगा लेती हैं, बालों पर हाथ फेरती हैं और यदि ज्यादा प्यार आ गया तो एकाध चुम्मा भी जड़ देंगी। उनकी महत्वपूर्ण चीजों में से एक था उनका मेकअप का बक्सा जिसे वे जी जान से सम्हाल कर रखती थी। इसी बक्से में उनकी जवानी का एक फोटो, कुछ बहुत ही आवश्यक चिट्ठी-पत्री और सहेज कर रखे हुए कुछ पैसे भी मिल जायेंगे। उनकी जिठानी उनके मेकअप के बक्से को देखकर अकसर पीठ पीछे मुँह बिचका कर कहती फिरती “ऊंह, आग लगे निगोड़े ऐसे फैशन में, गाँव की गंवारन थी और आज मेम बनी घूम रही हैं।”

बात भी सही है जब अम्मा ब्याह कर आई थी उन्हें गंवारन, मोटी, चश्मिस कह कर धिक्कारा गया। बस बात उनके दिल को लग गई सोचा किस्मत तो बदल नहीं सकती सो भेष ही बदल लिया जाये। उस गंवारन के ठप्पे से उन्हें फैशनेबल का लेबल ज्यादा भा गया था।

आज भी उन्हें याद जब वे कानपुर से ब्याह कर मुंबई आ रही थीं, उस षोडशी नववधू को जब किसी चुगलखोर रिश्तेदार महिला ने बताया कि जो बड़ा सा पेट लिये तुम्हारी जिठानी है उसके पेट में तुम्हारे पति का बच्चा है, तब सर से पाँव तक करंट दौड़ गया था। शारीरिक सम्बन्ध के बाद ही बच्चा होता है ऐसा सहेलियों ने बताया था तो फिर क्या देवर भाभी के बीच ...सोच कर भी उन्हें उबकाई आने लगी थी। वे मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगी कि यह बात गलत निकले, बस अफवाह हो पर यह अफवाह नहीं कड़वा सच था। ससुराल आते ही वहां का वातावरण देख वह अल्हड़ किशोरी अचंभित रह गई, जेठ का शराब पीकर पड़े रहना और उनके पति की भाभी के प्रति आसक्ति, भाभी की नजरों में अजीब सा आकर्षण का भाव जो रोज रात को पति को उनके बिस्तर से उठा कर भाभी के बिस्तर पर पहुंचा देता है। विरोध करने की जितनी ताकत उस बालिका में थी किया ....एक बार पति को भाभी के बिस्तर से निकाल लात-घूंसों कि बरसात भी की। हाथ की चूड़ियाँ टूट गई, कलाइयों से खून निकलने लगा पर बेशर्म पति की आदतें नहीं बदली। ससुर से शिकायत भी करके देखा, उन्होंने जेठानी को एक महीने के लिये मायके भेज दिया पर वहां से वापस आने के बाद देवर भाभी की प्रेम लीलायें पुनः प्रारंभ हो गई। प्रेम का बड़ा घिनौना रूप कम उम्र में ही देख लिया था, विवाह के बाद प्रेम के जो सपने सजाये थे वे चूड़ियों की तरह ही टूट गये थे। पति के प्रेम के बिना भी उन्हें तीन बच्चे हुए क्योंकि बच्चे होने के लिये प्रेम की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। अब तक उपन्यासों में पढ़ी प्रेम की प्रतिमा धूमिल पड़ चुकी थी, उन्मुक्त परिवार से आई लड़की इस वातावरण में पल-पल घुट रही थी फलस्वरूप उन्हें क्षयरोग हो गया। टीबी हो जाने पर उन्हें परिवार से दूर एक सेनेटोरियम में रख दिया गया, तब अम्मा तन और मन दोनों से छिन्न-भिन्न हो गई थी, वहाँ उनकी सेवा में जुटी सिस्टर मल्लिका ने उन्हें जीने के लिये प्रेरित किया उन्हें सिखाया कि अपने लिये कैसे जिया जाता है। एक बार पूरी शक्ति लगाकर उन्होंने खुद को उठाने का प्रयत्न किया और इस बीमारी पर विजय प्राप्त कर ली और जब वे सेनेटोरियम से लौटी पुरानी वाली रमा का केंचुल उतार फेंका था अब वे अपने खान-पान और पहनावे पर अधिक ध्यान देने लगी थी। बीमारी की वजह से वजन भी कम हो गया था और चेहरे पर पीलापन बढ़ गया था तब-से ही उन्होंने मेकअप करना शुरू कर दिया था, यह मेकअप उन्हें उनकी ननद ने सिखाया था। उन्हें पता था कि जिन्दगी तो यहीं बितानी है फिर रो-बिसूर कर क्यों बिताई जाये। बहुत चाहने पर भी वे तलाक लेकर मायके न जा सकी क्योंकि मायके में उनकी ही हमउम्र सौतेली माँ आ गई थी। जिन्दगी जब कई दरवाजे बंद करती है तो जीने की उम्मीद बनाये रखने के लिये एक रोशनदान खुला छोड़ देती है जहाँ से रोशनी और हवा आकर मन की बेल को हरा रखती है। रमा ने अपना मन पढ़ने और संगीत सुनने में लगाया, पति साथ रह कर भी साथ न थे। पति की मृत्यु के बाद दुखों के एक युग का अंत हुआ। अब अम्मा अपनी सारी मनपसंद बातें कर रही थी मसलन गाना सुनना, किताबें पढ़ना, फिल्में देखना...

धोबी आया था और रेवा को उसका हिसाब करना था, गाने की आवाज से वह झल्ला गई और चिल्ला कर बोली “अम्मा, बंद करो यह बाजा, सिर में दर्द होने लगा।”

अम्मा ने कुछ सुना ही नहीं,वे और जोरों से सिर हिला-हिला कर गाने का आनंद लेने लगी, रेवा ने आकर प्लेयर का बटन खटाक से बंद कर दिया और कहा –“बंद करो यह बाजा, सुबह से रीं लगा रखी है।”

अम्मा को लगा रस की नदी से उन्हें तृप्त होने के पहले ही खींच कर बाहर निकाल दिया हो, झुंझला कर बोली –“तुम्हें नहीं सुनना है तो नहीं सुनो, हमें तो सुनने दो।”

रेवा भी गुस्से से बोली –“ अम्मा, यह घर मेरा है, सुबह से शोर-शराबा मुझे पसंद नहीं आपको सुनना हो तो इयर फोन लगा लिया करो।”

अम्मा को यह बात आहत कर गई यह घर मेरा है ऊंह ...क्या बात करती है, मेरे बेटे के घर पर मेरा कोई हक नहीं, माना की वह इस दुनिया में नहीं पर जब वह था तो उसने ही अम्मा के लिये यह कमरा बनवाया था, अम्मा अपने कमरे में आकर लेट गई और किताब के पन्ने पलटने लगी, पढ़ना और गाने सुनना यही थे उनके शौक जो स्कूल के दिनों से उन्हें लग गये थे। नजरें धुंधला गई तो लेंस लेकर पढ़ने लगी और कानों को कम सुनाई दिया तो इयरफोन लगा लिया पर शौक बरकरार रखा। आज भी नूरजहाँ और मेहंदी हसन की गजलें सुनने को दिल बेताब रहता है। कोई कुछ भी कहे अम्मा थी यूँ ही शौकीन मिजाज, सफाई और करीना भी उनके आदत में शुमार था। करीने से बिछी हुई चादर, कढ़े हुए तकिया गिलाफ, दीवारों पर लगी ख़ूबसूरत तस्वीरें मन मोह लेती थी। और उनका मेकअप का बक्सा किसी कारू के खजाने से कम न था बड़े किस्मत वाले होते थे वे लोग जिन्हें वे इस बक्से से अनमोल चीजें निकाल कर देती थी। अम्मा ने अपने जेवरों और अन्य संपत्ति का बंटवारा कर दिया था पर उनकी विरासत यह बक्सा किसे मिलेगा सभी सोच में पड़े थे, छोटी बहू तो पति की मृत्यु के बाद संन्यासिनी  सा जीवन बिता रही थी और बड़ी कितनी बार कोशिश कर चुकी थी कि देख सके डब्बे में क्या है पर नाकाम, बक्से पर एक छोटा सा ताला पड़ा रहता और चाबी अम्माजी के गले में पड़े गणेश जी के लॉकेट के साथ लटकती रहती, साक्षात गणेश जी उस चाबी की रक्षा कर रहे होते। वे अपना सा मुँह लेकर रह जाती। हाँ, लाड़ली बेटी जब भी ससुराल से आती इस खजाने में सेंध लगाने की कोशिश करती रहती और अम्मा से हँसते हुए कहती अपनी वसीयत में यह मेकअप का बक्सा हमारे नाम ही लिखना। अम्मा भी हाँ की मुद्रा में सर हिला देती पर उनके दिल में क्या है कोई नहीं जान सकता था।

अब वो दिन लद गये जब दादियाँ, नानियाँ पान, सुपारी, छालिया पानदानों में रखती थी और वे जहाँ जाती पानदान साथ जाता था पर रमा जी ठहरी अलग तबियत की इन सबमें से किसी भी चीज को खाकर उन्होंने अपने दांत खराब नहीं किये बल्कि बड़ी शान से वह मीनाकारी वाला मेकअप का बक्सा साथ ले जाती थी। उनका मेकअप का बक्सा मसहरी के ऊपर आले में रखा रहता था, कोई इसे छू नहीं सकता था अलबत्ता देख देख कर ठंडी आहें जरूर भरता था।

सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था पर अनहोनी होनी थी और हो गई, एक दिन सुबह-सुबह अम्मा उठी तो सबसे पहले हाथ जोड़ कर ईश वंदन किया ऊपर बक्से पर निगाह डाली तो देखा वह गायब था, हाय राम! कौन उठा कर ले गया उनका प्यारा मेकअप का बक्सा, कल ही तो उसमें से निकालकर कामवाली को लिपस्टिक दी थी सोचा था कहीं बाजार हाट, शादी-ब्याह जायेगी तो लगा लेगी। कहीं उसने ही तो नहीं ....मन में ख्याल आते ही वे जोरों से चिल्लाई –“रेवा ...”

रेवा रसोई से भागते हुए आई –“क्या हुआ?”

“हमारा मेकअप का बक्सा गायब है ....जाने कौन उठा कर ले गया?”

“अरे कहाँ जायेगा, आपके कमरे में ही कहीं पड़ा होगा, आप तो ऐसे कहर मचा रही हो मानो हीरों का हार खो गया हो?”

“पर गया तो कहाँ गया, हमारे कमरे में कौन आया था?” अम्मा रोषपूर्ण स्वर में बोली।

रेवा कुछ सोचते हुए बोली “इलेक्ट्रीशियन आया था आपके कमरे में पंखा ठीक करने पर उसे आपके मेकअप के बक्से से क्या लेना-देना ......”

“पर उसके अलावा कोई आया?” अम्मा फिर चिंतामग्न बोली।

“जब गीता काम कर रही थी हम मार्केट चले गये थे, आपको ध्यान रखना चाहिये कौन आया और कौन नहीं आया .....हे भगवान! इस घर में तो सब कुछ हमारे जिम्मे, इनके बक्से का ये खुद ध्यान नहीं रख सकती।”

आगे अम्मा कुछ नहीं बोली बस अनमनी हो गई, उन्हें कुछ अच्छा नहीं लग रहा था, किसी तरह चाय के साथ दो डबलरोटी खाई और गीता का इंतजार करने लगी। उसके आते ही साथ उस पर बरस पड़ी –“हमने  तुमको बक्से में से लिपस्टिक निकाल कर दी थी और फिर तुम्हें दराज में बक्सा रखने को कहा था, कहाँ है हमारा बक्सा?”

गीता को कुछ ठीक से याद नहीं आ रहा था, दिमाग पर जोर डालते हुए बोली “अम्मा, जब आपने दराज में बक्सा रखने को कहा था ...तो रखा ही होगा हमने वहाँ।”

“रखा ही होगा मतलब क्या? तुम्हें इतना भी याद नहीं।”

उनकी इन बातों से गीता परेशान हो गई और उनकी बहू से बोली “देखो भाभी, यदि अम्मा जी हम पर यूँ ही शक करती रहेंगी तो हम यहाँ काम न करेंगे बताये देते हैं हाँ ...”

उसकी ठसकदार धमकी से रेवा घबरा गई और अम्मा से चिढ़कर बोली “अम्मा, सोच समझ कर बोला करो, गीता ने कभी छोटी सी चीज भी उठाई है जो आपका बक्सा ले जायेगी, मिट्टी पड़े ऐसे बक्से पर, दूसरा भी तो खरीद सकती हो।”

रेवा की जली-कटी सुनकर अम्मा शांत तो हो गई पर मन ही मन टूट गई कितनी आसानी से रेवा ने कह दिया दूसरा बक्सा ले लो, उसे क्या पता इस बक्से से उनकी कितनी यादें जुड़ी हुई थी जब वे सेनेटोरियम से घर आई थी बड़ा ठंडा स्वागत हुआ था, जैसे सब सोच रहे हो कि वहीं मर जाती तो अच्छा रहता बस एक चाचा ससुर की लड़की ममता ने उनका दिल समझा था। ममता के माता-पिता की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी, उसका पालन-पोषण इसी घर में हुआ था पर उसे योग्य सम्मान और प्रेम नहीं मिल पाया था। दुख से दुख के तार जुड़ गये, ममता और वे पक्की सहेलियाँ बन गई। ममता ने ही उन्हें मेकअप करना सिखाया था और जब दोनों मिलकर प्रदर्शनी देखने गये थे तब यह बक्सा खरीदा था।

ममता का विवाह तो हुआ था पर पति वहशी मिला था, उसपर शक करता था और मारता-पीटता था, ममता जैसी अभिमानी लड़की के लिये जब बर्दाश्त से बाहर हो गया तो वह मायके आ गई, माँ जहाँ हो वही मायका माँ ही नहीं तो काहे का मायका, यहाँ पर भी वह दुत्कार सह कर ही रहती थी। पर अब उसने हर परिस्थिति से टकराना सीख लिया था। उसके बारे में सबके विचार अच्छे नहीं थे, चरित्रहीन समझा जाता था उसे, लोग कहते थे उसके कई पुरुषों से सम्बन्ध थे। पर वे कभी उसके लिये मन में दुर्भावना नहीं लाती थी। ममता न होती तो वे जी नहीं पाती इस वातावरण में, ठीक ममता का भी यही हाल था कहती “भाभी, आपके आने से पहले तो यह घर नरक था।”

जब पहली बार ममता ने अपने हाथों से उनका मेकअप कर दिया था, वे शीशे में स्वयं को देखकर शर्मा गई थी “ममता, लोग क्या कहेंगे हमारे इस रंग-रोगन को देखकर, हमें तो बाहर निकलने में लाज आती है।”

तब ममता मुस्कुरा कर कहती “भाभी आपको मेकअप करने में लाज आती है, और लोगों को चेहरे पर मुखौटे चढ़ाने में लाज नहीं आती, ताऊ जी को देखा है रात में बीड़ी कारखाने में काम करने वाली औरतों को बगल में दबा कर सो जाते हैं और सुबह नहा–धो कर सफेद धोती पहन पूजन करते हुए कितने पवित्र बन जाते हैं और दूर क्यों जाती हो तुम्हारे पति वीरेन को देख लो रातों को भाभी के साथ गुलछर्रे उड़ाते हैं और सत्यनारायण पूजा में तुम्हें वाम आसन पर बिठाते हैं, इन सारे लोगों को मुखौटे चढ़ाते शर्म नहीं आती और तुम्हें मेकअप करने में शर्म आती है। दुखों ने हमारे चेहरों पर झाइयाँ ला दी हैं, प्लास्टर उधड़ी बिना रंग-रोगन की दीवार की तरह हमारा जीवन है, फिर इसमें रंग क्यों न भरे जाये, लोगों को अपना दुख कभी न दिखाना, जगहंसाई होगी, तुम्हारा चेहरा इतना सजा-संवरा लगे कि किसी को भी दुख की टोह न लगे, सच्ची भाभी, तुम्हारी कसम इस मेकअप के साथ लोगों से मिलो कांफिडेंस आ जायेगा।

वे उसका भाषण पूरी निष्ठा से सुनती रहती और कहती “तू समझती नहीं ममता, लोग समझते हैं, आदमियों को रिझाने को यह मेकअप किया है।”

ममता खिलखिला कर हँस पड़ती “तो समझने दो न, इन मुए आदमियों को औरतों की देह बड़ी भाती है, इस देह के भीतर की दुनिया तो वह कभी देख ही नहीं पाते, उसकी हारी-बीमारी, उसका नाजुक मन कब किसने देखा है, भूले रहने दो इनको देह के जंजाल में।”

ममता भन्नाट बकवास करती थी, पर गलत भी क्या था, दैहिक सुख के बगैर आदमी का प्रेम तौलो तो रत्ती भर ही बड़ी मुश्किल से आ पायेगा। पर उन्होंने अनुभव कर लिया था कि इस मेकअप में सचमुच चमत्कार है, उनकी शानो-शौकत तो बढ़ी ही उनमें आत्मविश्वास भी आ गया। उनके मेकअप का घर में दबे स्वर में विरोध तो हुआ पर उन्होंने किसी का न सुनी, शादी के पन्द्रह साल बाद वे गूंगी गुड़िया नहीं रह गई थी। तब से आज तक मेकअप का बक्सा कलेजे से लगा कर रखा था, आज यह बक्सा गुमा तो उन्हें लग रहा था शरीर से प्राण निकल गये। अब तो अपना दुख बताने को ममता भी नहीं थी, वह दस बरस पहले ही गुजर गई थी।

अम्मा दिन भर गुमसुम रहीं, नाम को कुछ खा लिया, सर्दी–खांसी तो पहले ही थी रात को बुखार आ गया। उनकी हालत देख रेवा घबरा गई, बुखार में वे बड़बड़ा रही थी ममता हमारा मेकअप का बक्सा तो उठा लाओ ...और जाने क्या क्या ...रेवा ने रात को ही उनके बड़े बेटे –बहू और बेटी को फ़ोन कर दिया, सुबह तक सब पहुँच गये, रेवा ने डॉक्टर को भी फ़ोन करके बुला लिया। डॉक्टर ने जाँच कर बताया की 103 बुखार है और ब्लड प्रेशर हाई है, इन्हें किसी बात का टेंशन न होने दे।

रेवा को उनकी बड़ी चिंता हुई, उसे लगा यह मेकअप का बक्सा ही सारी चिंता का विषय है, इसे खोजना बड़ा जरूरी है। उन्होंने चौकीदार से पूछा जब वे बाहर गई थी तब कोई आया था क्या, उसने याद कर बताया कि आपके जाने के बाद गीता की लड़की आई थी उसके साथ स्कूल का बड़ा सा बैग था। गीता के आने पर रेवा ने पूछा “अम्मा का बक्सा गुम हुआ उस दिन तुम्हारी बेटी आई थी क्या?”

गीता भड़क कर बोली “भाभी हम गरीब जरूर है पर चोरी नहीं करते, मेहनत की खाते हैं।”

रेवा बोली “नहीं गीता तुम्हारी बेटी पर चोरी का आरोप नहीं लगा रही, बच्ची है वह, उसने उत्सुकतावश रख लिया होगा, अम्मा बुखार में हुए बड़बड़ाते हुए उस बक्से का नाम कई बार ले चुकी हैं।”

तभी गीता को याद आया कि कल उसकी बेटी के होंठ ऐसे लग रहे थे मानो अभी लाली पोंछी हो तब उसने उससे पूछा भी, पर उसने जवाब नहीं दिया था और वह भी काम में लग गई थी।

“भाभी आज वह स्कूल जाने से पहले आने वाली है पूछती हूँ उससे”, और जैसे ही बेटी आई गीता ने उससे प्रश्न किया “तूने अम्मा का मेकअप का बक्सा लिया है क्या?”

बेटी घबरा गई और न में सर हिलाने लगी, गीता गुस्से में बोली “दिखा, अपना बस्ता मुझे दिखा।”

बस्ता खोलते ही उसमें से मोरपंखी रंग का वह बक्सा झलक गया, एक-दो सामान गायब थे पर ईश्वर का शुक्र है की वह मिल गया, रेवा भागी हुई भीतर पहुँची और अम्मा के सिरहाने जा उनके कान में बोली “अम्मा मेकअप का बक्सा मिल गया।”

अम्मा में जैसे जान आ गई हल्की से आँखें खोलकर कमजोर आवाज में बोली “कहाँ?”

अम्मा का बड़ा बेटा, बहू, बेटी भी इस खुशखबरी से प्रसन्न हो गये थे।

अम्मा के पीछे दो तकिया लगा कर उन्हें बैठाया गया, बक्सा उनके गोद में रखा हुआ था बिछड़ने के बाद मिलन के क्षणों जैसा अनुभव अम्मा को हो रहा था अम्मा के आदेश पर गीता की लड़की को बुलाया गया, अम्मा ने बड़े प्यार से उससे पूछा  “बक्सा क्यों ले गई थी बिटिया?”

लड़की ने शर्मा कर नीची गर्दन कर कहा “अम्मा जी हमें मेकअप बहुत पसंद है।”

“संभाल कर रखोगी न इसे?”

लड़की ने हाँ में सर हिलाया, अम्मा ने कुछ आवश्यक चिट्ठी-पत्री, उनका जवानी का फोटो और एक छोटी सी डिबिया उसमें से निकाली और बक्सा लड़की की ओर यह कहते हुए बढ़ाया “तुझे पसंद है न रख ले।”

अम्मा की बेटी मुँह बाये देख रही थी, जिस बक्से पर जिन्दगी भर उसकी नजर थी, अम्मा बड़ी आसानी से किसी और को दे रही थी।

अम्मा ने रेवा के हाथ में डिबिया पकड़ाते हुए कहा “और तू यह रख।”

रेवा ने डिबिया खोलकर देखा वह हलके गुलाबी रंग का रूज़ था, रेवा के चेहरे पर प्रश्नवाचक मुद्रा थी, असमंजस में पूछा “अम्मा यह किसलिये? आपको अच्छे से पता है मैं मेकअप कभी नहीं करती।”

वह इसलिये की जब मैं मरूंगी तो स्नान तो तुम ही कराओगी, बस स्नान के बाद जब हमें धोती पहनायेंगे, गालों पर थोडा सा रूज़ लगा देना।”

रेवा हाथ में रूज़ की डिबिया लिये अवाक् खड़ी अम्मा को देख रही थी।  

 

 

 

                                                  

 

 

 

 

 

 

 

 


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