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नीतिवान संन्यासी

नीतिवान संन्यासी

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एक जंगल में हिरण्यक नामक चूहा तथा लघुपतनक नाम का कौवा रहता था। दोनों में प्रगाढ़ मित्रता थी। लघुपतनक हिरण्यक के लिए हर दिन खाने के लिए लाता था। अपने उपकारों से उसने हिरण्यक को ऋणी बना लिया था। एक बार हिरण्यक ने लघुपनक से दुखी मन से कहा- इस प्रदेश में अकाल पड़ गया है। लोगों ने पक्षियों को फँसाने के लिए अपने छतों पर जाल डाल दिया है। मैं किसी तरह बच पाया हूँ। अतः मैंने इस प्रदेश को छोड़ने का निश्चय किया है।

 

लघुपनक ने बताया- दक्षिण दिशा में दुर्गम वन है, जहाँ एक विशाल सरोवर है। वहाँ मेरा एक अत्यंत घनिष्ठ मित्र रहता है। उसका नाम मंथरक कछुआ है। उससे मुझे मछलियों के टुकड़े मिल जाया करेंगे।

 

हिरण्यक ने विनती की कि वह भी लघुपतनक के साथ वहीं जाकर रहना चाहता है। लघुपतनक ने उसे समझाने की कोशिश की कि उसे अपनी जन्मभूमि व सुखद आवास को नहीं छोड़ना चाहिए। इस पर हिरण्यक ने कहा कि ऐसा करने का कारण वह बाद में बताएगा।

 

दोनों मित्रों ने साथ जाने का निश्चय किया। हिरण्यक लघुपतनक के पीठ पर बैठकर उस सरोवर की ओर प्रस्थान कर गया। निश्चित स्थान पर पहुँचकर कौवे ने चूहे को अपनी पीठ पर से उतारा तथा तालाब के किनारे खड़े होकर अपने मित्र मंथरक को पुकारने लगा।

 

मंथरक तत्काल जल से निकला। दोनों एक- दूसरे से मिलकर प्रसन्नचित्त थे। इसी बीच हिरण्यक भी आ पहुँचा। लघुपनक ने मंथरक से हिरण्यक का परिचय कराया तथा उसके गुणों की प्रशंसा भी की।

 

मंथरक ने भी हिरण्यक से उसके जन्मस्थान से वैराग्य का कारण जानना चाहा। दोनों के आग्रह को सुनकर हिरण्यक अपनी व्यथा कथा सुनाने लगा।

 

नगर के बाहर स्थित शिव मंदिर में ताम्रचूड़ नामक एक संन्यासी रहता था। वह नगर में भिक्षा माँगकर सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर रहा था। खाने-पीने से बचे अन्न-धान्य को वह प्रत्येक दिन एक भिक्षा पात्र में डालकर रात्रि में खूँटी पर लटकाकर सो जाया करता था। सुबह-सुबह उसे मंदिर के बाहर बैठे भिखारियों में बाँट देता था। इस सब बातों की सूचना हिरण्यक को भी मिली। उसे यह भी पता चला कि ये स्वादिष्ट सामग्री ऊँचाई पर होने के कारण अन्य चूहों को दिक्कत होती है।

 

हिरण्यक ने बताया कि अपने साथी की बात सुनकर एक रात मैं वहाँ आया तथा खूँटी पर लटकी हांडी पर छलांग लगा दी तथा हांडी को नीचे गिरा दिया तथा साथियों के साथ स्वादिष्ट भोजन का आनंद लिया। अब यह हमारा हर रात का नियम सा बन गया।

 

परेशान होकर संन्यासी एक फटे बांस का डंडा लेकर आया। डंडे की आवाज से हम लोग डर जाते थे, लेकिन उसके सोते ही पुनः हंडिया साफ कर देते थे।

 

एक बार संन्यासी का मित्र वृहतस्फिक तीर्थांटन के उपरांत उससे मिलने आया। रात में सोते समय वृहतस्फिक ने ताम्रचूड़ को अपने तीर्थ का विवरण सुनाने लगा। इस दौरान भी ताम्रचूड़ फटे बाँस का डंडा बजाता रहा, जिससे वृहतास्फिक को बुरा लगा। तब ताम्रचूड़ ने उसे डंडा बजाने की असली वजह बताई।

 

वृहतस्फिक ने जिज्ञासा दिखाते हुए पूछा- चूहे का बिल कहाँ है? ताम्रचूड़ ने अनभिज्ञता दर्शायी लेकिन यह स्पष्ट था कि जरूर ही यह बिल किसी खजाने पर है। धन की गर्मी के कारण ही यह चूहा उतना अधिक ऊँचाई तक कूद सकता है। वृहतास्फिक ने एक कुदाल मँगवाया तथा निश्चित होकर रात में दोनों सो गए।

 

हिरण्यक ने सुनाना जारी रखा। प्रातःकाल वृहतास्फिक अपने मित्र के साथ हमारे पद चिन्हों का अनुसरण करते हुए हमारे बिल तक आ ही पहुँचे। किसी तरह मैंने अपनी जान बचा ली, परंतु अंदर छिपे कोष को निकाल लिया। कोष के लुट जाने से मेरा उत्साह शिथिल हो गया। इसके बाद मैंने उस खूँटी तक पहुँचने की कई बार कोशिश की, लेकिन वह असफल रही।

 

मैंने धन को पुनः प्राप्त करने की कई कोशिश की, लेकिन कड़ी निगरानी के कारण मुझे वापस नहीं मिल पाया। इस कारण मेरे परिजन भी मुझसे कन्नी काटने लगे थे। इस प्रकार मैं दरिद्रता तथा अपमान की जिंदगी जी रहा था।

 

एक बार मैंने पुनः संकल्प लिया। किसी तरह तकिये के नीचे रखे धन को ला रहा था कि वह दुष्ट संन्यासी की निद्रा भंग हो गयी। उसने डंडे से मेरे ऊपर भयंकर प्रहार किया। मैं किसी तरह जीवित बच पाया। जान तो बच गयी, लेकिन परिवार के लोगों के साथ रहना सम्मानजनक नहीं लगा। और इसीलिए मैं अपने मित्र लघुपतनक के साथ यहाँ चला आया।

 

हिरण्यक की आप बीती सुनकर मंथरक ने कहा- मित्र निःसंदेह लघुपतनक आपका सच्चा व हितैषी मित्र है। संकट काल में साथ निभाने वाला ही सच्चा मित्र होता है। समृद्धि में तो सभी मित्र होते हैं।

 

धीरे-धीरे हिरण्यक भी अपने धन की क्षति को भूल गया तथा सुखपूर्वक जीवन यापन करने लगा।


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