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HARSH TRIPATHI

Others

5  

HARSH TRIPATHI

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दस्तूर - भाग-4

दस्तूर - भाग-4

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क़ाशनी साहब कुछ पलों तक मंद-मंद मुस्कुराते हुए फरीद की ओर देखते रहे फिर एक चुप्पी के बाद गम्भीर आवाज़ में केवल तीन शब्द कहे “भरोसा, बरखुरदार!.......भरोसा”

फरीद अभी भी उनकी ओर खामोशी से देख रहे थे.यमुना भी चुप हो गयी थी. शफाक़त ने फिर उस से पूछा “आगे बताइये न!.....इस बात का क्या मतलब है?......भरोसा?”

यमुना मुस्कुराई और आगे बताने लगी...क़ाशनी साहब ने फरीद से सवाल किया “एक बात बताएं फरीद.....आप इस शहर के ही नहीं, इस सूबे के नामी कारोबारी हैं, और यह बात हर कोई जानता है कि आप लोग मुसलमान हैं. आपके ज़्यादातर ग्राहक हिंदू हैं और आपके स्टाफ मे भी काफी ज़्यादा हिंदू लोग काम करते हैं. क्या कभी आपसे कभी किसी ने कहा कि अपना कारोबार यहाँ बंद कीजिये और अपना बोरिया-बिस्तरा समेट कर चले जाइये पाकिस्तान क्योंकि आप लोग मुसलमान हैं और हिंदुस्तान में मुसलमान कारोबार करने की इजाज़त नहीं है?.....या फिर यह कि आप अपने स्टाफ में सौ फीसदी हिंदू ही रखिये, एक भी मुसलमान मत रखिये क्योंकि आपको हिंदुस्तान में रहना है?.....बोलिये, कभी हुआ है ऐसा?”

“..जी नहीं जनाब, कभी नहीं”

“..या क्या कभी यह हुआ कि किसी ने कहा हो कि तुम मुसलमान हो और अपने हर महीने के कारोबारी मुनाफे का 90 फीसदी किसी हिंदू मंदिर को दान करो, और अगर ऐसा नहीं किया तो तुमको यहाँ रहने नहीं देंगे?....बोलिये, हुआ है?”

“जी नहीं जनाब.”

“..अच्छा, आपके भाई मिर्ज़ा हैदर—और हमें भी बड़ा फ़ख्र होता है कि वह सौघरा कॉलेज में हमारे स्टूडेंट रहे हैं—बड़ी मेहनत से उन्होने लिखाई-पढ़ाई की और आज एक सीनियर आई.सी.एस. अफसर हैं, ज़रा हमें बताएं कि क्या कभी ऐसा हुआ कि मिर्ज़ा को किसी ने कहा हो कि तुम आई.सी.एस का इम्तेहान नहीं दे सकते क्योंकि तुम मुसलमान हो?....या तुम पढ़ने में अच्छे होने के बावजूद किसी भी क्लास में अव्वल नहीं आ सकते क्योंकि तुम मुसलमान हो?.....या मुसलमान होने की वजह से उनको कभी किसी क्लास में 2-3 बार फेल किया गया हो?...... बोलिये, क्या हुआ है ऐसा?

“जी नही, कभी ही नहीं जनाब”

“फिर आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?

 फिर क़ाशनी साहब ने अपने कुर्ते की जेब से अपनी एक छोटी सी चाँदी की डिब्बी निकाली, जो हमेशा ही उनकी जेब मे पड़ी रहती थी और जिसमे 3 या 4 पान के बीड़े हमेशा रखे रहते थे…….अब आखिर शौकीन तो थे ही क़ाशनी साहब; शौक में कोई कमी नहीं रहनी चाहिये..........क़ाशनी साहब ने डिब्बी खोली और पान का एक बीड़ा उठाकर अपने मुँह में धीरे से रखा. वे जानते थे कि फरीद पान, तम्बाकू वगैरह नहीं खाते और इसलिये उन्होने फरीद को पान के लिये पूछा भी नहीं. मुँह कुछ ऊपर कर के और पान का बीड़ा मुँह में रखते हुए उन्होने डिब्बी बंद की और फरीद की तरफ देखकर कुछ अस्पष्ट स्वर में क़ाशनी साहब बोले “...डेखिये फरीद, जिन्ना साहब और.....उनकी मुस्लिम लीग....ने जो भी किया.....मेरा मतलब कि.....पहले पाकिस्तान की माँग की और फिर लड़-झगड़कर पाकिस्तान ले भी लिया, वह भी लाखों लाशों की ढेर पर....इशने यहाँ हिंडुस्टान में.....सदियों से....एक साथ रहती आ रही अवाम को......एक झटके में.....दो टुकड़ों में बाँट दिया. एक रहे मुसलमान, और दूसरे रहे गैर-मुसलमान.....”

फिर पान को मुँह के भीतर घोंटते हुए, साफ स्वर में बोलने लगे “....समझे आप!!, पाकिस्तान के तक़सीम हो जाने की वजह से मुल्क में गैर-मुसलमानों का मुसलमानों पर से भरोसा पूरी तरह से उठ चुका है, बिल्कुल खत्म हो चुका है. जिन्ना साहब के काम से इन दो क़ौमों के बीच एक बहुत ही बड़ी और बहुत ही गहरी खाई पैदा हो गयी है, और यह खाई इतनी बड़ी और गहरी है कि इस खाई को भरने में दोनों ही क़ौमों को बहुत लम्बा वक़्त लगेगा......इनकी कई नस्लें गुज़र जायेंगी यह करते-करते…….इसीलिये मैंने कहा कि यह तपस्या आसान नहीं रहने वाली...”

फरीद चुपचाप क़ाशनी साहब को सुन रहे थे.

“....भरोसा बनने मे बहुत लम्बा वक़्त लगता है फरीद मियाँ, लेकिन टूटने में बिल्कुल वक़्त नहीं लगता. अब मुसलमानों पर से ये जो भरोसा टूटा है, वह इतनी जल्दी तो बनेगा नहीं फरीद.....आप खुद ही देखिये, आप लोग इस शहर के बड़े और नामी कारोबारी हैं. क्या ये नाम और ये इज़्ज़त एक दिन में बनी है? जहाँगीर साहब यानि आपके दादा ने 3 कमरों से बहुत छोटा सा कारोबार शुरु किया था, जिसको फिर आपके अब्बा ने सजाया-सँवारा, अब आप लोग इसमें लगे हुए हैं. तीन-तीन पीढ़ियाँ लगीं फरीद तब जाकर आज आप आस-पास के 7-8 ज़िलों और लखनऊ तक कारोबार कर रहे हैं....और इस सूबे के बेहतरीन, नामी कारोबारी हैं. बोलिये, क्या नहीं है ऐसा?”

फरीद ने सहमति में सिर हिलाया “बिल्कुल ठीक कहते हैं आप”

“....अब ज़रा बताइये, आपको क्या इस बात का डर नहीं लगता है कि कहीं आपके कारखानों में कोई खराब सामान न बन जाये?.....क्या आप बार-बार अपने स्टाफ को और मैंनेजरों नहीं बताते कि ग्राहकों से बड़े प्यार और तहज़ीब से बर्ताव किया जाये, और उनकी हर बात, हर शिकायत पर बराबर से ध्यान दिया जाये और उन्हें सुलझाया जाये?....”

“सही है.”

“...क्या आप लोग अपने स्टाफ की तनख्वाह, बोनस और उनकी घर-परिवार की तकलीफों का ख्याल नहीं रखते हैं?”

“बिल्कुल रखते हैं जनाब!....बल्कि इसी वफादार स्टाफ की मदद से ही तो हम लोग एक बड़े मुश्किल दौर से बाहर निकल पाए हैं और हमारा कारोबार अच्छी हालत मे है.”

“ऐसा क्यों करते हैं आप लोग?.....इसीलिये न कि इतने सालों की कमरतोड़ मेहनत के बाद आप लोगों ने मार्केट में जो नाम और पोजीशन बनाई है, वह बनी रहे……इतने सालों में लाखों लोगों का जो भरोसा आपने कमाया है, वह यूँ ही कायम रहे और बढ़े?”

“जी”

“....बस वही बात है. जिन्ना साहब और उनके लोगों ने इसी बात का खयाल नहीं रखा.....उन्होनें नहीं सोचा कि अगर मज़हब की बुनियाद पर पाकिस्तान तक़सीम हो गया तो उसका अंजाम क्या होगा?......और यही वजह है कि यह सवाल बार-बार हमारे आगे किसी शैतान की तरह मुँह फैलाए आ जाता है.”

“...फिर एक बात यह भी है फरीद कि हिंदुस्तान एक बहुत बड़ा मुल्क है. आज लगभग 55 करोड़ लोग रहते हैं यहाँ, अलग-अलग मज़हब और जातियों में बँटे हुए.......और लिखाई-पढ़ाई के नाम पर जीरो.......ऊपर से भयंकर गुरबत के शिकार.......ऊपर कश्मीर से लेकर मद्रास तक और गुजरात से नेफा तक. यहाँ हर दो कोस पर बोली और हर तीन कोस पर खाना बदल जाता है.......हर ज़िले-ज़िले में त्योहार बदल जाते हैं......मेरा मतलब यह कि इतने बड़े और इतने बँटे हुए मुल्क में, जहाँ अनपढ़-गँवार और गरीब लोगों की इतनी बड़ी आबादी हो.....किसी भी बात को सभी लोगों को बता पाना, सभी को समझा पाना बहुत ही टेढ़ी खीर है, और साथ ही लोगों को भड़का पाना, बहका पाना बहुत ही आसान. इतनी बड़ी आबादी जो इतनी बँटी हुई हो, जहाँ इतने लोग निरक्षर हों, गरीब हों उस मुल्क की तारीख में आखिर 18-20 साल होते ही कितने हैं फरीद?.......अगर यह कोई यूरोप का मुल्क होता, छोटा सा, कम आबादी वाला, लिखा-पढ़ा मुल्क....तो ज़रूर हम लोग इस बात को सभी को समझाने में कामयाब रह पाते कि हम पर भरोसा कीजिये, और हम जिन्ना से अलग हैं. यहाँ रहने का फैसला हमारा अपना है. हम इस मिट्टी से प्यार करते हैं, जिसमें हमारे बाप-दादाओं की खाक़ मिली हुई है. हमारे बाग-बगीचे, हमारे खेत-खलिहान सब तो यहीं है, और हमें इनसे बे-इंतेहा मोहब्बत है......राजेंद्र लाहिरी और रामप्रसाद के साथ, अशफाक़ उल्ला खान ने भी फाँसी के फंदे को चूमा था........लेकिन यह यूरोप का मुल्क नहीं है फरीद, यह हिंदुस्तान है. यहाँ के हालात और समस्याएं बाकी दुनिया से बिल्कुल जुदा, बिल्कुल अलग किस्म की हैं.”

फरीद ने सिर हिलाकर इस बात पर रज़ामंदी दी.

“...देखो फरीद, मौलाना आज़ाद ने कहा था “मुसलमान अव्वल दर्ज़े के बेवकूफ थे जो उन्होने अपने लिये अलग मुल्क पाकिस्तान की माँग की, और हिंदू उनसे भी ज़्यादा बेवकूफ थे जिन्होने इस माँग को मान लिया....”

फरीद खामोशी से क़ाशनी साहब को देख रहे थे.

“...लेकिन हम ठहरे हिंदुस्तानी....दुनिया में हमसे ज़्यादा अक्लमंद तो कोई है ही नहीं. वो मुहावरा सुना है?...अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार लेना.....लेकिन हम हिंदुस्तानी बेमिसाल लोग हैं. हम लोग हमेशा कुल्हाड़ी खोजते फिरते हैं, कि कहीं बस कुल्हाड़ी दिख जाये और हम उस पर पूरी ताकत से अपना पैर मार दें......जो होगा फिर देखा जायेगा.” क़ाशनी साहब ने व्यंगात्मक लहज़े में कहा. यह बात इस अंदाज़ में सिर्फ वही कह सकते थे.

फरीद मुस्कुराते हुए उन्हे देख रहे थे.

“...अंग्रेज़ कभी हिंदुस्तान छोड़ना चाहते ही नहीं थे. लेकिन जब ऐसी सूरत बनी कि हिंदुस्तान छोड़ने के अलावा उनके पास कोई रास्ता नहीं रहा, तो उन्होने यही सोचा फिर, कि इस मुल्क के बदन पर ऐसा घाव दिया जाये जिसके दर्द से यह मुल्क आने वाली कई पीढ़ियों तक न उबर सके.....वह घाव सड़ता रहे, पकता रहे, नासूर बनता रहे लेकिन हमेशा बना रहे और हिंदुस्तान तड़पता रहे.....और हमारी अवाम ने यह मौका उनके आगे थाली में सजाकर पेश कर दिया.”

फरीद ने कहा “अवाम कहाँ जनाब?....ये तो जिन्ना साहब और लीग की कारस्तानी रही न?”

क़ाशनी साहब ने पलटकर कहा “क्यों? क्या अकेले जिन्ना साहब और उनकी पार्टी के कुछ मुट्ठी भर लीडर चालीस-बयालीस करोड़ हिंदुस्तानियों से ज़्यादा ताक़त रखते थे?.....अकेले जिन्ना साहब क्या पाकिस्तान बना लेते?....अजी सवाल ही नहीं पैदा होता फरीद मियाँ!!. ये पाकिस्तान इसलिये बना क्योंकि अवाम यही चाहती थी, क्योंकि हम लोग यह चाहते थे. हम लोग यह चाहते थे कि बँटवारा हो.....यह हमारी मर्ज़ी थी कि दंगे-फसाद हों, और बेगुनाह लोग गाजर-मूली की तरह काटे जायें......औरतों की अस्मत रुसवा की जाये......यहाँ तक कि उनकी लाशों के साथ भी ज़िना किया जाये.......असल में जिन्ना साहब और उनके लोग तो केवल एक ज़रिया भर थे जिनके रास्ते हमारी एक-दूसरे के लिये नफरत अंदर से निकलकर सतह पर आ गयी. अंग्रेज़ों के झाँसे में आकर मुस्लिम लीग ने केवल माचिस की तीली भर जलाई थी.....आग लगाने के लिये ज़रूरी ईंधन तो पहले से ही मौजूद था हमारे यहाँ...”

“...सोचिये फरीद, बँटवारे से जिन्ना साहब या नेहरू जी या लियाकत अली का क्या गया? कुछ भी नहीं.....मुम्बई के आलीशान मेंशन के मालिक जिन्ना साहब, मय खानदान वहाँ पाकिस्तान जाकर वहाँ के गवर्नर जनरल बन बैठे और लियाक़त अली वहाँ के वज़ीर-ए-आज़म. नेहरू जी को यहाँ का तख्त-ओ-ताज मिल गया....इनमें से किसी के घर से कोई जनाज़ा नहीं निकला, किसी के घर दंगों में कोई नहीं मारा गया. आज़ादी के पहले ये लोग जैसे थे, आज़ादी के बाद तो उससे और भी बेहतर स्थिति में पँहुच गये थे......कुछ भी गया तो किसका गया?....अरे!! इस गरीब और बेचारी अवाम का गया. कितने लोग बेघर हो गये, कितने लाखों-लाख लोग मारे गये, औरतों को हवस का शिकार बनाया गया......ये सब किसके साथ हुआ?....क्या लीग या कांग्रेस के किसी बड़े और नामी लीडर के साथ हुआ?.....नहीं मियाँ, नहीं.”

फरीद खामोश थे.

“…..आप खुद ही सोचिये फरीद, जब तक अवाम गाँधी जी की बात सुनती रही, तब तक न कहीं कोई दंगे-फसाद हुए, न कहीं मारकाट बल्कि एक से बढ़कर एक मूवमेंट होते रहे जो दुनिया की तारीख में बेमिसाल माने गये. आखिर नॉन-कॉपरेशन, नमक आंदोलन और क्विट इंडिया मूवमेंट कामयाब रहे या नहीं?......और क्यों रहे?....यहाँ से अमेरिका तक के कॉलेजों में क्यों पढ़ाया जाता है इनके बारे में?.......क्योंकि इसमें अवाम पूरी तरह तैयार थी गाँधी जी के साथ चलने को. और उसके बाद देखिये, जब अवाम ने गाँधी जी की बात सुननी बंद कर दी तो क्या हुआ?........फिर हुआ डायरेक्ट एक्शन और हुए दंगे, और मारकाट....क्यों?.....क्योंकि अवाम अब गाँधी जी की बात नहीं सुनना चाहती थी और एक-दूसरे का खून बहाने पर उतारू थी.....वो अभी कहा न मैंने आपको.....कि हमें कुल्हाड़ी खोज कर उस पर पैर मारना ही होता है.”

इसी तरह से देर शाम तक उस्ताद और शागिर्द की बातें चलतीं रहीं. अब घड़ी की सुईयां रात के 7:30 बजा रही थी, और यह कह रही थीं कि फरीद के जाने का वक़्त हो गया था. फरीद अब अपनी कुर्सी से उठे और जाने की इजाज़त लेते हुए क़ाशनी साहब का अभिवादन किया. क़ाशनी साहब ने भी फरीद को दिल से आशीर्वाद दिया—जैसा वो हमेशा देते ही थे—और फिर फरीद निकल गये. तब तक अनीसा और बेगम सहिबा बाज़ार से लौट कर नहीं आयीं थीं.

रात में खाना खाने के बाद फरीद अपने कमरे में बिस्तर पर लेटे हुए थे, और सिर पर हाथ रखे हुए छत पर लगे पंखे के ठीक बीच में लगे स्टील के गोले को देख रहे थे. सफेद कुर्ता-पैजामा पहने फरीद खुद को बहुत साफ ढंग से उस स्टील के गोले में देख पा रहे थे. बच्चे बगल के कमरे में सोने चले गये थे. नादिरा अपने काम निपटा कर कमरे में आयीं लेकिन फरीद किसी छोटे बच्चे की तरह बड़ी उत्सुकता से अभी भी स्टील के गोले में देख कर मुस्कुरा रहे थे और उनको नादिरा के आने का पता नहीं चला. पता तब चला जब नादिरा उनके पास आकर बैठीं और उनके कंधे पर हाथ रख कर मुस्कुराते हुए कहा “क्या देख कर हँस रहे हैं मियाँ जी?, थोड़ा हमे भी बताएं.” फरीद हँसते हुए बोले “वो देखिये नादिरा ऊपर, वो स्टील के गोले में....हम दोनों लोग साफ दिखाई दे रहे हैं.” नादिरा ने ऊपर देखा तो उस स्टील के गोले में छोटे आकार में उनका चेहरा और बिस्तर पर लेटे फरीद नज़र आ रहे थे. नादिरा की हँसी छूट गयी और वो मुँह पर हाथ रखते हुए अपने ठहाके को काबू करते हुए बोलीं “क्या मियाँ जी, अपनी उम्र देखिये....दो बच्चे हैं आपके और वो भी इतने हो गये हैं कि बगल के कमरे मे सो रहे हैं....और उनके अब्बा जी पंखे के गोले के अंदर खुद को देख कर हँस रहे हैं.” मुस्कुराते हुए फरीद उनसे बोले “तो क्या हुआ नादिरा?.....मेरे ख्याल में किसी भी इंसान को अपने अंदर के बच्चे को कभी मरने नहीं देना चाहिये....जब तक उसके अंदर का बच्चा ज़िंदा है, वह आदमी भी थोड़ा-बहुत ही सही, सच्चा तो रहता ही है. जो वह बच्चा मर गया, फिर तो वह आदमी पूरा का पूरा झूठ और फरेब का पुतला ही रह जाता है.”

नादिरा ने कहा “ह्म्म्म्म....वो बात भी सही है लेकिन आजकल जो दुनिया है, झूठा इंसान ही कामयाबी की सीढ़ियाँ चढ़ता दिखता है, यह है तो अजीब लेकिन सच्चाई भी है.”

फरीद ने लम्बी साँस भरते हुए कहा “...आपकी बात से राज़ी होने को दिल तो नहीं करता लेकिन दिमाग कहता है कि आप शायद सही हैं अपनी जगह...”

“...अभी भी शायद?” नादिरा ने मुस्कुराकर पूछा.

“....हाँ क्योंकि अभी भी क़ाशनी साहब जैसे लोग ज़िंदा हैं, और ऐसे लोगों की वजह से ही दिल के किसी कोने से आवाज़ आती है कि सच्चाई और ईमानदारी की क़द्र की जाये तो आपके साथ भी अच्छा ही करेगा ऊपर वाला.” फरीद ने कहा.

“अच्छा, तो आज आप मिलकर आ रहे हैं उनसे....अरे मैं तो भूल ही गयी थी कि आज इतवार था....आज तो हफ्ते भर की गप्प की होगी आप दोनों ने तो...”

फरीद हँस रहे थे.

“...चलिये अच्छा है, इसी बहाने आपकी इतवार की शाम भी अच्छी गुज़र जाती है.”

फिर नादिरा ने उनसे पूछा “तो बताइये, पंखे के गोले मे देखते हुए आप क्या सोच रहे थे?”

फरीद ने उनकी ओर देख कर कहा “ऐसा कुछ खास नहीं.....,मैं सोच रहा था कि गलतफहमियां पैदा हो जाना कितना आसान होता है न?.....न चाहते हुए भी इंसान कुछ का कुछ सोच लेता है.”

क्यों?....ऐसा क्या हुआ?” नादिरा ने पूछा.

फरीद ने उनसे सवाल किया “नादिरा, क्या आपको भी यही लगता है कि अब्बा हुज़ूर अपने बाकी के तीन लड़कों की बनिस्बत मिर्ज़ा को ज़्यादा अहमियत देते हैं?”

नादिरा ने पूछा “आपको भी मतलब?....और किसने कहा ये आपसे?”

“शुज़ा और मुराद को शायद ऐसा ही लगता है. उनको लगता है कि अब्बा हुज़ूर के लिये उनकी बात की वक़त कम और मिर्ज़ा की बात की वक़त ज़्यादा है.” फरीद ने कहा.

नादिरा ने बहुत सीधे तरीके से और कुछ रूखेपन से जवाब दिया “...मिर्ज़ा को तो नहीं....अलबत्ता अब्बा हुज़ूर मुराद को ज़रूर आप तीनों से ज़्यादा अहमियत देते हैं.”

फरीद ने नादिरा से ऐसे कड़वे जवाब की उम्मीद नहीं की थी, वो चौंक कर बोले “अरे!!!...ऐसा आप कैसे कह सकती हैं?”

“खुद ही देख लीजिये, कारोबार में मुराद फिसड्डी ही साबित हुए हैं आजतक. जब भी और जहाँ भी, जो भी काम दिया गया, वो कर पाने में नाकाम ही रहे हैं.....वो काम तभी हुआ है जब आपने और शुज़ा भाईजान ने उसमें हाथ लगाया है. और केवल काम की बात नहीं है, मुराद के चाल-चलन भी शुरु से तो खराब ही रहे हैं.....ये तो भला हुआ कि इनकी शादी हो गयी. कम से कम शादी की वजह से ही सही, इनके चाल-चलन में कुछ तो सुधार हो ही गया है. लेकिन इतना सब होने के बाद भी अब्बा हुज़ूर मुराद और उनके परिवार को बाकी सब से ऊपर ही रखते हैं.”

फरीद हँसते हुए बोले “...आपकी बात समझ गया मैं……..लेकिन नादिरा, पाँचों उंगलियाँ बराबर तो नहीं होती ना? हम चार लड़के और दो लड़कियाँ हुए अपने वालदेन के...अब यह किस्मत की बात है कि मुराद बाकी लोगों जैसे नहीं हुए. लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं है न कि उनको बिल्कुल ही हाशिये पर कर दिया जाये?....वो जैसे भी हैं, आखिर इस घर का खून हैं.....हर घर में इस तरह के हालात होते ही हैं, लेकिन एक बाप तो अपने बेटे से मुँह नहीं मोड़ सकता न?”

नादिरा कुछ देर चुप रहीं और फरीद को देखती रहीं. फिर बोलीं “लेकिन शुज़ा और मुराद को ऐसा क्यों लगता है?.....ऐसी क्या बात हो गई?”

फरीद ने उन्हें पूरी बात बताई कि सैयद साहब ने एक बैठक की थी सबके साथ कारोबार बढ़ाने की बाबत, और उसमें यह कहा गया कि मिर्ज़ा जब घर आयेंगे तो उनकी राय ली जायेगी और फिर उसके मुताबिक़ काम किया जायेगा. इसी बात को लेकर शुज़ा और मुराद नाराज़ हैं और उन्होनें फरीद से अपनी नाराज़गी ज़ाहिर भी की है.

फिर फरीद ने आगे कहा “....तभी मैंने कहा कि गलतफहमियां हो जाना कितना आसान होता है.”

नादिरा कुछ पलों तक चुप रहीं, फिर धीरे से कहा “...मेरे खयाल में ये नाराज़गी बेवजह तो नहीं है शायद.....मिर्ज़ा आराम से अपनी नौकरी कर रहे हैं, कारोबार मे दिलचस्पी उन्होनें ली नहीं कभी....आपने, शुज़ा और मुराद ने ही काम किया है हमेशा...” इतना बोलकर वह चुप हो गयीं.

फरीद ने फिर उनसे कहा “...यार अली साहब और अब्बू ने ऐसा इसलिये कहा क्योंकि कारोबार की बेहतरी के लिये सीनियर सरकारी अफसरों का अपनी तरफ होना खासा ज़रूरी है....और यह तो शानदार बात है कि मिर्ज़ा इंतज़ामियत मे एक ऊँचे ओहदे पर है. तो हमारा काम काफी आसान हो जायेगा.......फिर आप ही तो कहती हैं कि चारों भाईयों की सलाह लेना अच्छा है, किसी को ये गिला न रहेगा कि उसकी बात नहीं सुनी गयीं.”

नादिरा चुपचाप फरीद को देखती बैठी हुई थीं

फरीद ने आगे कहा “..मैने उन दोनो से भी यही कहा और, आपको भी यही कह रहा हूँ कि अब तक अब्बा हुज़ूर जो भी फैसले करते आये हैं, उनसे हमारे कारोबार और घर में बरक़त ही हुई है, और इसलिये उन्होनें अगर ऐसा सोचा है कि मिर्ज़ा की राय ली जाये, तो ज़रूर इसमें भी हमारी बेहतरी ही शामिल है.”

नादिरा ने ऊपर देखकर कहा “..अल्लाह करे ऐसा ही हो.”

फिर वह दोनो सो गये. लेकिन नादिरा की आँखों में नींद नहीं थी आज. फरीद की बात सुनकर कुछ बेचैन सी हो गयीं थीं वह.

लगभग 20-25 दिनों के बाद मिर्ज़ा का मय परिवार सौघरा आना हुआ. मिर्ज़ा की शख्सियत में एक अलग किस्म का बाँकपन साफ दिखता था. ये पक्का लगता था उनको देखकर कि ये इंसान जो कहीं खड़ा हो जाये, तो बस यही दिखेगा. बचपन से ही मुश्किल कामों को करने के शौकीन मिर्ज़ा के अंदर की ज़बरदस्त खुद-ऐतमादी उनके चेहरे पर झलकती थी. दिन-रात की कड़ी मेहनत के बाद ये ताक़तवर नौकरी मिलना और 10 बरस से ज़्यादा वक़्त से इस नौकरी में रहने की वजह से मिर्ज़ा में एक अजब किस्म का गुरूर दिखाई पड़ता था. पैसे की कमी तो खैर मिर्ज़ा को पहले भी नहीं थी लेकिन एक शानदार नौकरी में आने के बाद मिर्ज़ा की चाल-ढाल, शौक सभी कुछ अलग ही नज़र आते थे. काफी कम बोलने वाले इंसान थे वो और उनके चेहरे पर एक अजीब सी, बड़ी मुमताज़ और उम्दा किस्म की बेरहमी भी नज़र आती थी जिससे उनसे बात करने से पहले ही आम लोगों की हिम्मत जवाब दे जाती थी. मिर्ज़ा के बोलने, यहाँ तक कि हँसने मे भी एक किस्म का रौब दिखाई देता था. वे घर में हों या बाहर, दोनो जगह ही कीमती और काफी अच्छे क़्वालिटी के कपड़े, चश्मे और घड़ियाँ पहनते थे. उनका सूटकेस अलग ही रहता था जिसमें कपड़ों से ज़्यादा किताबें रहती थीं, और उनमें भी अंग्रेज़ी नॉवेल और प्ले पढ़ना उनको बड़ा पसंद था. शेक्सपियर, बरनॉर्ड शॉ के प्ले उनको बहुत पसंद थे और टॉलस्टॉय, गोर्की और दोस्त्योवस्की उनके पसंदीदा लेखक थे.

उस रात खाने की मेज पर मिर्ज़ा अपने भाईयों और सैयद साहब के साथ रात का खाना खा रहे थे, जब उनके अब्बू ने खाते हुए कहा “मिर्ज़ा.....कुछ ज़रूरी बात करनी है आपसे.”

मिर्ज़ा और बाकी के तीनों भाई अपने अब्बू की ओर देखने लगे. मिर्ज़ा ने कहा “जी अब्बू, फरमाइये.”

“...अरे नहीं, नहीं, यहाँ अभी नहीं.” मुस्कुराते हुए सैयद साहब बोले.

फिर उन्होनें कहा “कल इतवार है. कल शाम, 6-7 बजे हम सभी लोग, और अली साहब और साथ में सरवर, हम लोग बैठक में मिलेंगे. कुछ बातें करनी है. आपको पहले बता दिया जिस से आपको याद रहे कल.”

अगल-बगल बैठे शुज़ा और मुराद ने अपनी-अपनी निगाहें थोड़ी सी तिरछी करते हुए एक-दूसरे की ओर देखा.

“जी अब्बू, ठीक है” मिर्ज़ा ने जवाब दिया.

अगली शाम चारों भाई और सैयद साहब अपनी बैठक में बैठे हुए थे और अली साहब और सरवर का इंतज़ार कर रहे थे. इसी समय सरवर की स्कूटर की आवाज़ सुनाई दी जो अपने अब्बा अली साहब को पीछे बैठाकर ले आया था.

अली साहब, सरवर के साथ कमरे में दाखिल हुए. चारों बच्चों ने अली साहब को झुककर सलाम किया, जवाब में अली साहब ने भी उनका सलाम क़ुबूल किया. मिर्ज़ा को देखते हुए अली साहब ने हँसते हुए कहा “शेर आ गया हमारा!!..” और ऐसा कहकर मिर्ज़ा को बाहों मे भर लिया.

शुज़ा और मुराद ने जलन भरी निगाहों से यह देखा.

“आखिरी दफा कब मिले थे मिर्ज़ा हम आपसे?” मुस्कुराते हुए सवाल किया अली साहब ने.

मिर्ज़ा ने शालीनता से जवाब दिया “करीब तीन महीने पहले मिले थे हम आपसे अली साहब.....काम ज़्यादा है, और छुट्टी मिल पाना मुश्किल हो जाता है.....फिर जंग के हालात भी हैं.”

“सही बोले आप मिर्ज़ा....हालात तो अच्छे नहीं कहे जा सकते” अली साहब ने हामी भरी.

इसी बीच सैयद साहब ने सबसे कहा “आप लोग बैठिये, अभी चाय आ रही है. चाय के साथ डिस्कशन करेंगे हम लोग.”

थोड़ी देर बाद नौकर चाय ले आया और मेज जो सोफा सेट के बीच में रखी हुई थी, उस पर एक-एक करके चाय रखने लगा. उसने सावधानी से बिना चीनी की चाय अली साहब और सैयद साहब के सामने रखी, बाकी की चाय दूसरे लोगों के सामने रखी, और साथ में बिस्किट से भरी एक प्लेट और दालमोठ से भरी एक दूसरी प्लेट मेज पर रखी और इस तरह से सबकी चाय और बिस्किट-नमकीन रखकर वह चला गया.

बातें शुरु हुईं. सैयद साहब ने सभी को बताया “जैसा कि आप लोग जानते ही हैं, कि पिछली बार करीब एक-डेढ़ महीना पहले हम लोग ऐसी ही एक मीटिंग में मिले थे. उस वक़्त मिर्ज़ा थे नहीं यहाँ पर......उस मीटिंग में हम लोगों ने यह बात की थी कि कारोबार के ज़रिये आया पैसा जमा कर के रखने का कोई फायदा नहीं है. फायदा तब है जब पैसा लगातार चलता रहे.....मतलब कहीं इनवेस्टमेंट करके पैसे के ज़रिये पैसा बनाया जाये, और इसीलिये हम ये सोच रहे थे कि हम अपना बिजनेस उन जगहों पर भी लेकर जायें, जहाँ अभी तक हमारी पहुँच नहीं बन पायी है, लेकिन जहाँ बहुत ही अच्छी बिजनेस अपॉर्च्यूनिटी मौजूद है, मसलन पंजाब, दिल्ली, गुजरात, एम.पी, बिहार और बंगाल में. लेकिन उस मीटिंग में अली साहब ने एक सलाह दी थी कि मिर्ज़ा भी इस घर के बेटे हैं, और इंतज़ामियत में एक ऊँचे ओहदे पर हैं, एक सीनियर आई.सी.एस. अफसर हैं, और कारोबार बढ़ाने के मामले में उनकी सलाह लिया जाना काफी फायदेमंद रहेगा, जैसे अभी तक रहा है. अभी तक हम लोगों ने मिर्ज़ा की कई बातों पर अमल किया है, जिसका फायदा भी हमें अच्छा मिला है.....इसीलिये हमने पिछली मीटिंग को मुल्तवी कर दिया था कि जब मिर्ज़ा आयेंगे, तब हम इस बात को फिर से हम सबके सामने रखेंगे. इस बार अब जब मिर्ज़ा आये हैं, तो इसी वजह से हमने आप लोगों को यहाँ बुलाया है, यही बात करने के लिये.”

थोड़ी देर तक कमरे में खामोशी रही, फिर मिर्ज़ा बोले “सही फरमाते हैं अब्बू आप....बिजनेस तो बढ़ाने से ही फल देता है. और वैसे भी अब्बू, दिल्ली, पंजाब और गुजरात में तो वाकई काफी अच्छे मौके बन रहे हैं कारोबार करने के....”

मुराद, जो पिछली मीटिंग के दिन से ही भन्नाए बैठे थे, लेकिन वह सैयद साहब से कुछ कह नहीं सके थे. मिर्ज़ा अपनी बात पूरी नहीं कर पाये थे तभी मुराद मिर्ज़ा को देखते हुए बेसब्र होकर बोल ही पड़े “पंजाब, गुजरात, दिल्ली में बिजनेस बढ़ाना तो अभी दूर की बात है अब्बू.....अभी तो हम अपने घर के पास मौजूद कानपुर, इलाहाबाद में ही अपना बिजनेस अच्छा कर सकें, वही बहुत है.....अभी तक हम कानपुर सिटी और माधवपुर मे न ज़मीन खरीद पा रहे, न फैक्ट्री लग पा रही, न माल ही बेच पा रहे हैं.”

कमरे में फिर से चुप्पी छा गयी थी. सब लोग मुराद की ओर कुछ सख्त निगाहों से देख रहे थे. मिर्ज़ा ने सोफे पर बैठे हुए अपना दायाँ पैर बायें पैर पर कैंची बनाते हुए रखा और कुछ तिरछे होकर सोफे के दायें हत्थे पर अपनी दायीं कुहनी रखी और अपनी दायें हाथ की उँगलियों को अपनी ठोड़ी के नीचे रखते हुए, मुराद की ओर देखते हुए अपनी धीर-गम्भीर आवाज़ से इस चुप्पी को तोड़ा “क्यों?....क्या हुआ?.....आप लोगों की सुई अभी भी वहीं अटकी हुई है....कानपुर और माधवपुर पर?”

अली साहब ने कहा “अब क्या कहें मिर्ज़ा बेटा...हमारी फाइल आगे ही नहीं बढ़ पा रही वो कपूर साहब की मेज से.”

“कौन कपूर साहब?”

सैयद साहब ने कहा “एक असिस्टेंट सेक्रेटरी हैं उद्योग विभाग में, कोई बी.एन. कपूर.....आई.सी.एस. ही हैं. हमने कई बार एप्लीकेशन लगाई, जितनी भी कमियाँ, जितनी भी टर्म और कंडीशन, जितनी भी क्लीयरेंस उनके विभाग ने बताई, सब पूरी करके बार-बार एप्लीकेशन भेजी लेकि हर बार वहाँ से कोई नई कमी बताकर टका सा जवाब मिल जाता है. लखनऊ जाकर भी हम लोग पर्सनली मिले उनसे, लेकिन फिर भी हमारी फाइल आगे बढ़ी नहीं वहाँ से......जबकि दूसरी ओर अग्रवाल साहब की कम्पनी ने जब एप्लीकेशन दी तो सिर्फ सात-आठ महीने में ही उनको अप्रूवल मिल गया. जबकि हमारी एप्लीकेशन उनसे पहले से पेंडिंग है.”

मिर्ज़ा सुन रहे थे.

“..अब तो ऐसा है कि हमने भी उम्मीद और कोशिश छोड़ दी है. अब हम ये सोच रहे हैं कि कोई नया अफसर कुछ वक़्त बाद उनकी कुर्सी पर आये तो हम फिर से ज़ोर लगायें.....तब तक बाकी जगहों पर फोकस करते हैं.”

मिर्ज़ा ने थोड़ी देर चुप रहने के बाद उनसे पूछा “खाने-पीने वाले हैं क्या कपूर साहब?”

अली साहब मुस्कुराये “...कुछ ज़्यादा ही. सुना है कि अग्रवाल साहब ने दो लाख दिये हैं.”

फरीद ने कहा “...उनका बाबू बोल रहा था हमसे, कि आप तो सूबे के इतने नामी कारोबारी हैं, अग्रवाल तो आपसे काफी पीछे हैं. फिर आपको क्या दिक्कत है?”

शुज़ा बोले “बाबू बिना अफसर की मंज़ूरी के इतना थोड़ी कह सकता है?....अफसर सीधे तो बोलते नहीं, बाबू से ही बुलवाते हैं.”

मिर्ज़ा के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान खेल गई “भाईजान!!, सेक्रेटेरियेट का बाबू बहुत बड़ी चीज़ होता है....खैर कोई बात नहीं, ठीक है....मै दिल्ली जाते समय लखनऊ होकर जाऊँगा, वहीं से दिल्ली की गाड़ी ले लूँगा.....थोड़ा मिल लूँगा कपूर साहब से.”

सैयद साहब ने तब कहा “वो आप करते रहियेगा, हम उस पर ज़्यादा सोच भी नहीं रहे. दो लाख वैसे भी काफी बड़ी रक़म है......हम तो और जगहों पर अपना ध्यान लगाने की बात कर रहे हैं.”

मिर्ज़ा तुरंत ही पलटकर बोले “…..क्यों नहीं सोच रहे आप उस बारे में?”

“क्या मतलब?”

“मतलब यह अब्बू कि आप जहाँ कहीं भी जायेंगे बिजनेस करने....चाहे पंजाब या गुजरात, क्या गारंटी है इस बात की कि बी.एन. कपूर जैसा कोई दूसरा अफसर आपको वहाँ नहीं मिलेगा?... और आपके काम में अड़ंगा नहीं लगायेगा?....बताइये ज़रा?”

सभी मिर्ज़ा की ओर देख रहे थे. उन्होनें बोलना जारी रखा “...और मान लीजिये ऐसे ही अफसर आपको अलग-अलग जगह पर मिले तो किस-किस जगह पर आप अपना कारोबार करना छोड़ कर निकल जायेंगे?....क्या बिजनेस नहीं करेंगे आप?...या बिजनेस बढ़ाएंगे नहीं?”

सैयद साहब ने कुछ चिढ़कर कहा “तो बताइये क्या किया जाये?.....क्या दो लाख रुपये दे दें हम उनको? ...इतनी मेहनत और मुश्किल से तो पैसा कमाते हैं, स्टाफ को तनख्वाह देते हैं, अब दो लाख की इतनी बड़ी रक़म उनके कदमों में जाकर रख दें?....और थोड़ा वाजिब कीमत माँगते....पचास या पिछत्तर या चलो एक लाख तक, तो सोचा भी जा सकता था, मगर ये तो बहुत ज़्यादा है. और जानते हैं? ये पहली बार नहीं होगा मिर्ज़ा…..इसके बाद वो हर कदम पर कुछ-कुछ डिमांड करेंगे, और फिर हमे वह करना ही पड़ेगा……अगरवाल साहब के पास हो सकता है बहुत सा फालतू पैसा हो, हमारे पास नहीं है....बात खत्म बस!!” सैयद साहब के चेहरे पर परेशानी दिख रही थी.

मिर्ज़ा ने कहा “मैंने कब कहा कि दो लाख रुपये हम उनके आगे फेंक आयें?....मैने यह कहा कि उस बात को वक़्त के भरोसे मत छोड़िये कि कोई दूसरा अफसर आयेगा तो आपका काम हो जायेगा. मान लीजिये कि इनका तबादला अगले 5 साल तक नहीं हुआ तो क्या आप अगले 5 साल तक ऐसे ही बैठे रहेंगे?....और मान लीजिये की कल को कोई दूसरा अफसर आ भी गया इनकी जगह, और वो इनसे भी ज़्यादा कमीना और घूसखोर निकला तो?”

सभी मिर्ज़ा की बात गौर से सुन रहे थे. मिर्ज़ा ने कहा “देखिये पहले नौकरशाही ईमानदार हुआ करती थी, लेकिन वक़्त के साथ-साथ वह और भी कमतर ही होती गयी है. सोशलिज़्म की आड़ में अफसरशाही का खूब गोरखधंधा चल रहा है आजकल.......ठीक है अब्बू, मैं जाकर बात करूँगा उनसे....देखता हूँ कि क्या रास्ता निकल सकता है.”

सैयद साहब और मिर्ज़ा के भाई उन्हें देख रहे थे.

अली साहब ने फिर असल बात की “आप बताएं मिर्ज़ा…...आप कह रहे थे कि पंजाब, गुजरात और दिल्ली में कारोबार बढ़ाने के अच्छे मौके हैं.....थोड़ा तफ्सील से बताएं इसे.”

मिर्ज़ा ने उनकी और अब्बू की ओर देखकर इत्मिनान से बताने की कोशिश की “अब्बू, अब ये तो आप जानते ही हैं कि नेहरू जी के वक़्त से ही सबसे ज़्यादा अहमियत खेती-किसानी को दी जा रही है. शुरु में कोशिश की गई थी कि इंडस्ट्रियल डेवलेपमेंट पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाये, लेकिन आगे जाकर यह सभी को समझ में आ गया था कि सब कुछ इंतज़ार कर सकता है, लेकिन खेती इंतज़ार नहीं कर सकती. किसी भी सूरत में खेती-किसानी पर सबसे ज़्यादा ताकत लगानी होगी….और मै यह बात आपको बता सकता हूँ आने वाले वक़्त में पंजाब, पश्चिम उत्तर प्रदेश, और बिहार में खासतौर पर गेहूँ और चावल की खेती पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया जायेगा. ऐसा इस वजह से होगा क्योंकि इन सभी जगहों पर एक तो मिट्टी काफी अच्छी है, और इन से भी आगे, इन जगहों पर पानी की कोई कमी नहीं है. इन सभी जगहों पर खासतौर पर नहरों का बहुत ही बेहतरीन जाल बिछा हुआ है जिस से सिंचाई की कोई समस्या नहीं होगी.....ऐसे में इन सभी सूबों में आने वाले वक़्त में बहुत ही ज़बरदस्त प्रोडक्शन देखने को मिलेगा. ग्रीन रेवोल्यूशन कहा जा रहा है इसे.”

“...तो उसका हम क्या करें?” सैयद साहब ने पूछा.

“बात समझिये अब्बू...” मिर्ज़ा ने कहा. वह आगे बोले “....देखिये, अमरीका, ब्रिटेन और यूरोप के बाकी मुल्कों में ठीक यही हुआ है…..मेरा मतलब है कि वहाँ भी पहले खेती-किसानी पर ही काफी ज़्यादा ज़ोर दिया गया था. जब इस से वहाँ काफी ज़्यादा कच्चा माल लगातार तैयार होने लगा था और लोगों के पास खेती से पैसा भी बढ़कर आने लगा था, तब तक वहाँ इंडस्ट्री लगाने लायक माहौल तैयार हो चुका था. लोग इस काबिल हो चुके थे कि खेती से आया हुआ अपना पैसा इंडस्ट्री में बिना किसी डर के लगा सकते थे, और उन्होने लगाया भी. और पैसा भी ऐसे ही नहीं लगाया अब्बू, लोगों के पास ज़्यादा पैसा होने का यह मतलब भी था कि लोग उन फैक्ट्रियों में बना सामान खरीद सकते थे, मतलब फैक्ट्रियों में बने सामानों की खपत की भी टेंशन नहीं थी उनको. धीरे-धीरे वहाँ इंडस्ट्रियलाइज़ेशन पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाने लगा और इस तरह से इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन भी ज़्यादा होने लगा. लोग उन सामानों को खरीद भी रहे थे और इस तरीके से उस पूरे एरिया में अच्छी खासी डेवलेपमेंट हुई और इंडस्ट्री लगाने वालों ने काफी ज़्यादा मुनाफा कमाया.”

कमरे में मौजूद सभी लोग मिर्ज़ा की बात गौर से सुन रहे थे.

“...इसीलिये अब्बू मैं कह रहा हूँ कि पंजाब, और बिहार में अपना बिजनेस बढ़ाने का अच्छा मौका बन रहा है. हम अभी इस पोजीशन में हैं कि वहाँ इंडस्ट्री शुरु कर सकें. इंडस्ट्री वहाँ अगर अभी हम लगाते हैं, तो कल लोगों की आमदनी बढ़ने पर वो हमारे सामान भी खरीदेंगे ही. फिर दिल्ली की बात मैं इसलिये कर रहा हूँ क्योंकि दिल्ली हिंदुस्तान की राजधानी है. किसी भी बड़े मुल्क की राजधानी को अच्छे से अच्छा बनाने की पुरज़ोर कोशिश वहाँ की हुक़ूमत करती ही है. हर हुक़ूमत चाहती है कि उसकी राजधानी की पूरी दुनिया भर में शोहरत हो और वह दुनिया के सबसे बेहतरीन और नामी शहरों में शुमार हो…..तो दिल्ली में तो डेवलपमेंट के काम बहुत ही ज़्यादा और हमेशा ही होते रहेंगे. डेवलपमेंट की जो भी कोई बेहतरीन पहल होगी, चाहे सड़क, बिजली, रेलवे, या स्कूल-कॉलेज, अस्पताल या जो भी, ये सबसे पहले दिल्ली से ही शुरु की जायेगी....और इसी वजह से दिल्ली और इसके आस-पास के एरिया में पैसा लगाना सोने के पेड़ लगाने जैसा होगा जो सारी उम्र फल देता रहेगा.” मिर्ज़ा ने अपनी बात खत्म की.

अली साहब और सैयद साहब ने एक-दूसरे की ओर देखा, और फिर उन्होने बाकी तीन भाइयों की तरफ देखा. फरीद, शुज़ा और मुराद ने भी इशारों में ही कुछ बात की और अब वे लड़के भी सैयद साहब की ओर देख रहे थे.

सब लोगों की निगाह एक बार फिर मिर्ज़ा पर जाकर ठहर गयी.

अली साहब ने कहा “आपकी बात बिल्कुल सही हो सकती है मिर्ज़ा लेकिन उसमें जोखिम ज़्यादा है.”

फरीद ने भी हामी भरी “हाँ मिर्ज़ा, इंडस्ट्री वहाँ लगाने की बात तो ठीक है मगर हमारे सामान की खपत हो इसके लिये उन लोगों के यहाँ खेती लगातार अच्छी होनी ज़रूरी भी तो है जिस से उन के पास भी पैसा हो, और वे उसे खर्च भी करें……खेती हमारे यहाँ बड़ा कच्चा काम है. कब सूखा आ जाये, और कब बाढ़, कुछ कहा नहीं जा सकता....ऐसे में जोखिम तो ज़्यादा है.”

मिर्ज़ा बोले “जोखिम तो लेना ही होगा भाईजान!!....अब्बूजान और अली साहब से पूछिये, कि कौन सा कारोबार बिना जोखिम उठाये बुलंदियों पर पहुँचा है आज तक?.....क्या इन लोगों ने हमारे कारोबार को इस मुक़ाम तक पहुँचाने के लिये जोखिम नहीं उठाया होगा?”

सैयद साहब और अली साहब एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्कुरा रहे थे.

मिर्ज़ा ने कहा “बड़ी कामयाबी पाने के लिये जोखिम उठाना पड़ता है भाईजान. वो इंसान कभी तरक्की नहीं कर सकता, कभी तारीख में अपना नाम दर्ज नहीं कर सकता जो जोखिम लेने से कतराता हो.”

सभी लोग चुपचाप मिर्ज़ा की ओर देख रहे थे.

मिर्ज़ा ने आगे कहा “देखिये, दिल्ली में फिलहाल तो मैं अभी तैनात हूँ ही अगले 3 साल....तो अगले 3 साल तो वहाँ के मसले मैं ठीक ढंग से देख लूँगा. उसकी फिक्र तो आप न करें. फिर पंजाब भी ज़्यादा दूर नहीं है वहाँ से....मैं बीच-बीच में जाकर देख सकता हूँ वहाँ, बाकी वहाँ पंजाब में हमें अपना कोई खास आदमी तो लगाना ही होगा फुलटाईम के लिये.” यह कहकर मिर्ज़ा खामोश हो गये.

फिर कुछ देर तक चुप रहने के बाद अली साहब ने पूछा “मिर्ज़ा, आपकी जानकारी में दिल्ली या उसके इर्द-गिर्द कोई जगह है क्या जहाँ बेस बनाकर कारोबार किया जा सके?...”

शुज़ा ने फिर बीच में ही कहा “...और केवल इतने से ही तो बात नहीं बनेगी अली साहब, हमें दिल्ली और उसके इर्द-गिर्द होलसेल डिस्ट्रीब्यूटर्स का एक पूरा नेटवर्क चाहिये होगा...और साथ में सरकारी मुलाज़िमों की मेहरबानियाँ भी......बिना उसके बिजनेस थोड़ी हो सकता है?”

मिर्ज़ा ने बिना परेशान हुए अली साहब से कहा “दिल्ली के आउट्स्कर्ट्स में.....साहिबाबाद और शाहजहाँनाबाद.....यहाँ हम लोग अपना बेस बना सकते हैं.....फैक्ट्री और गोदाम वगैरह. अभी यहाँ काफी कम लोग पहुँचे हैं. लेकिन आने वाले वक़्त में फैक्ट्रियाँ यहीं लगेंगी, क्योंकि ज़मीन यहाँ अभी बिल्कुल औने-पौने दाम पर ही बिक रही है. आप यकीन नहीं करेंगे कि इतनी सस्ती ज़मीन वह भी दिल्ली के पास मिल सकती है.....शहर में जाकर ज़्यादा खर्च बढ़ाने की ज़रूरत ही नहीं है....”

फिर वह शुज़ा की ओर मुखातिब होते हुए मुस्कुराते हुए बोले “...भाईजान, हमारे फरीद भाईजान तो लोगों से बात करके उनको राज़ी करने में माहिर हैं. इस फन में इनके जोड़ का तो कोई नहीं है. तो फरीद भाई अगर 3-4 दफा दिल्ली आयें, ज़मीन और लोकेशन वगैरह देख लें, और कुछ कारोबारियों, होलसेल डिस्ट्रीब्यूटरों से बात करें, तो ये काम बिल्कुल आसान हो जायेगा.....और वैसे भी, फरीद भाई की दोस्ती–यारी में तो कितने सारे लोग रहते भी हैं दिल्ली में....वे किस दिन काम आयेंगे?....”

सभी ने फरीद की ओर देखा जो मिर्ज़ा की ओर देखते हुए मुस्कुरा रहे थे.

“...और फिर मैं तो हूँ ही दिल्ली में.....सरकारी दफ्तरों से जुड़े जो भी पेचीदगी वाले काम हैं, लाईसेंसिंग, परमिट, दस्तखत वगैरह, वह मैं देख लूँगा.”  

उम्मीद तो यही की गयी थी कि यह मीटिंग जल्दी खत्म हो जायेगी लेकिन वह बैठक शाम 6 बजे शुरु हुई थी और करीब रात 9 बजे तक कमरे में मौजूद सभी 7 लोग करोबार पर डिस्कशन करते रहे. एक बात साफ नज़र आ रही थी कि अली साहब और सैयद साहब को मिर्ज़ा की बातों में दम लग रहा था और वे लोग संजीदगी से पंजाब और दिल्ली में बड़ी इनवेस्टमेंट करने की सोच रहे थे.

रात 9 बजे अली साहब ने सैयद साहब से इजाज़त माँगी और बेटे सरवर के साथ स्कूटर पर निकल गये. उस रात खाने की मेज पर भी सैयद साहब और उनके बेटों के बीच इसी बात पर चर्चा होती रही.

शुज़ा और मुराद को साफ नज़र आ रहा था कि सैयद साहब, अली साहब और यहाँ तक कि फरीद भी मिर्ज़ा की बातों को काफी तवज्जो दे रहे थे, और मिर्ज़ा ने यह भी कहा था कि दिल्ली में कारोबार करना मतलब सोने का पेड़ लगाना है जो हमेशा फल देता रहेगा और दिल्ली और आस-पास के मसाइल को वो देख लेंगे, इसका मतलब यह कि मिर्ज़ा की ताकत इस घर में भी और कारोबार में भी, बेशुमार बढ़ने वाली थी. पंजाब के मामलात भी मिर्ज़ा के ही सुपुर्द किये जायेंगे, ये बात भी वह समझ रहे थे. उन दोनों को जो डर था, वही होता दिख रहा था.

वह बैठक खत्म होने के बाद और रात के खाने से पहले वे दोनों छत पर गये. मुराद ने फनफनाते हुए कहा “देखा भाईजान!!....जो मैंने कहा था बिल्कुल वही हमारे आगे उतरता दिख रहा है.”

शुज़ा भी खिन्न थे “..हाँ मुराद, बिल्कुल सही कह रहे हैं आप. मिर्ज़ा की हर बात पर जैसे मुहर लगाने को तैयार बैठे रहते हैं अली साहब और अब्बू जी....खैर उन लोगों को तो जाने भी दीजिये, उनकी आँखों पर तो मिर्ज़ा ने अपनी काबिलियत की काली पट्टी ही बाँध रखी है. मेरी समझ में तो यह बात नहीं आ पा रही है कि जो चीज़ सामने होती दिख रही है और जो बात आसानी से हमें समझ में आ रही है, फरीद भाई को समझ में क्यों नहीं आ रही है?....वह क्यों भक्त बने हुए हैं मिर्ज़ा के?”

मुराद ने कहा “सीधी बात है भाईजान, बड़ा खरबूजा कट रहा है.....सबको बँट रहा है. मिर्ज़ा ने बड़ी चालाकी से फरीद भाई को अपनी ओर मिला लिया है, देखा नहीं क्या आपने?.......दिल्ली जायेंगे फरीद भाई और मिर्ज़ा के साथ मिलकर कारोबार की गुंजाईश तलाशेंगे, ज़मीन वगैरह देखेंगे और डिस्ट्रीब्यूटर्स से बात करेंगे...फायदे में उनका भी हिस्सा होगा ही.”

शुज़ा ने कहा “ह्म्म्म.....तभी मैं सोचूं कि फरीद भाई ने कुछ क्यों नहीं कहा वहाँ बैठक में......वैसे, फायदे में उनका हिस्सा तो क्या होना, उनको समझ में तब आयेगा जब उनके बीवी-बच्चे मिर्ज़ा के रहम-ओ-करम के मोहताज हो जायेंगे......मिर्ज़ा इतने दरियादिल नहीं है. वह हमारे भाई हैं, और हम उन्हें अच्छी तरह जानते हैं.”

मुराद गुस्से में बोले “...लेकिन हमारी समझ में सारी बात आ रही है, और हम अपने बीवी-बच्चों को मिर्ज़ा के रहम-ओ-करम का मोहताज नहीं होने देंगे किसी भी सूरत में.”

फिर उन्होनें कुछ और बातें की और खाना खाने नीचे आ गये.

खाने के बाद फरीद और नादिरा अपने कमरे में ही थे जब नादिरा ने उनसे पूछा “बड़ी देर तक बैठे रहे आज आप लोग बैठक में?.....ऐसी क्या बात हो रही थी? खाने की मेज पर भी आप पाँचो लोग वही बात कर रहे थे. सब खैरियत तो है?”

फरीद मुस्कुराए “सब खैरियत से है. ऐसी कोई बात नहीं है. हम दरअसल दिल्ली और आस-पास के एरिया में अपना कारोबार बढ़ाने की बात कर रहे थे कि ये काम कैसे होगा. असल में मिर्ज़ा एक बड़ा बेहतरीन आइडिया दे रहे थे......हम लोग उसी पर डीटेल में बात कर रहे थे.”

“कैसा आइडिया?”

“यही कि दिल्ली और पंजाब में अभी पैसा लगाया जाये, तो आने वाले वक़्त में उससे काफी अच्छा मुनाफा मिल सकेगा. करोबार बढ़ाने की काफी ज़्यादा और बेहतर गुंजाईश है दिल्ली और पंजाब में.”

“तो मतलब कि इसके लिये तो वहाँ किसी को लगना पड़ेगा न?....कारोबार ऐसे ही तो नई जगह शुरु नहीं किया जा सकता है....उसमें तो बड़े पचड़े होते हैं....ज़मीन, कारखाने, गोदाम और भी पता नहीं क्या-क्या?”

फरीद मुस्कुराए “हाँ, हाँ होते हैं.....इसीलिये वहाँ लगना ही पड़ेगा. मिर्ज़ा बोल रहे थे कि हमें वहाँ जाना होगा 4-5 बार जिस से ज़मीन, कारखाने, गोदाम वगैरह की लोकेशन देखना, होलसेल डिस्ट्रीब्यूटर्स से बात करना ये सब काम किये जा सकें. फिर अपने मिर्ज़ा वहाँ एक बड़े सरकारी अफसर हैं, तो सरकारी दफ्तरों की जो भी पेचीदगियाँ होंगी, वह मिर्ज़ा सुलझा लेंगे.....फिर हमारी जान-पहचान के भी कई दोस्त-यार हैं वहाँ, उनकी भी मदद लेंगे. इस तरह से वहाँ कारोबार जमाने की सोची है अब्बू और हम लोगों ने.....देखिये आगे क्या होता है.”

नादिरा ने कहा “ह्म्म्म्म.....मतलब कि आने वाले वक़्त में आप काफी ज़्यादा मसरूफ रहने वाले हैं कारोबारी मामलों में……..वैसे मेरे खयाल में अली साहब भी जायेंगे ही वहाँ 1-2 बार तो...”

“हाँ, जा भी सकते हैं.”

और इस तरह से बातें करते हुए वे दोनों सो गये.

शुज़ा और मुराद ने उस रात अपनी बीवियों से कोई बात इस बैठक के बारे में नहीं की. वे जानते थे कि उनकी बीवियाँ सैयद साहब और फरीद की ही बातों को सही बताएंगी. लेकिन यह बात उन दोनों के ज़हन में गहरे बैठी थी और जिसको लेकर वे पूरी तरह से पाबंद थे कि उनकी बीवी-बच्चे हाथ में कटोरा लेकर मिर्ज़ा के आगे खड़े नहीं होंगे.

मिर्ज़ा अपनी 3-4 दिन की छुट्टी पूरी बिता कर वापस दिल्ली लौटने की तैयारी कर रहे थे लेकिन उन्होने सोचा हुआ था कि वह लखनऊ भी जायेंगे और कपूर साहब से मिलेंगे. इसीलिये उन्होनें अपने परिवार को दिल्ली वाली गाड़ी पर बिठा कर भेज दिया और खुद लखनऊ के के लिये निकल गये.

कपूर साहब सेक्रेटेरियेट के अपने चैम्बर मे बैठे अपनी फाईलें निपटा रहे थे, जब उनके प्यून ने आकर बताया कि “...दिल्ली से रेवेन्यू डिपार्टमेंट के बड़े अफसर आ रखे हैं, मिर्ज़ा हैदर नाम बता रहे हैं”, और यह कहकर मिर्ज़ा की लिखी हुई पर्ची कपूर साहब को थमा दी. मिर्ज़ा यहाँ लखनऊ सेक्रेटेरियेट के लोगों के लिये अजनबी नहीं थे और यहाँ के लोग उन्हे अच्छी तरह जानते थे. अपनी दस-ग्यारह बरस की नौकरी में मिर्ज़ा कुछ बरस यहाँ लखनऊ में भी बिता चुके थे, साथ ही दिल्ली में जब कोई बड़ी मीटिंग या सरकारी जलसा वगैरह होता तो यहाँ के अफसरान से मिर्ज़ा की मुलाक़ात हो ही जाती थी.

कपूर साहब ने प्यून से मिर्ज़ा को बड़ी इज़्ज़त के साथ अंदर बुलाने को कहा और साथ में दो चाय और सॉल्टेड काजू लाने का भी हुक्म दिया. “...रेवेन्यू डिपार्टमेंट के बड़े अफसर...” सुनकर कपूर साहब हरकत में आ गये थे.

मिर्ज़ा कपूर साहब के चैम्बर में दाखिल हुए. कपूर साहब ने कड़े होकर बड़े अदब से अभिवादन किया और हाथ मिलाने के लिये अपना दायाँ हाथ आगे बढ़ाया. मिर्ज़ा ने भी गर्मजोशी के साथ उनसे हाथ मिलाया. कपूर साहब ने उन्हे कहा “बैठिये सर” ,और फिर दोनों अफसर एक दूसरे के सामने आरामदायक कुर्सियों पर बैठ गये. उनके बीच में कपूर साहब की बड़ी मेज थी जिस पर साफ-सुथरी एक सफेद चादर बिछी थी और उसके ऊपर काँच की एक बड़ी शीट रखी थी. उसके ऊपर एक तरफ फाईलें रखी थी जो निपटानी थी. दूसरी ओर वे फाइलें थीं, जो निपटाई जा चुकी थीं. बीच में एक सुंदर फूलदान, कपूर साहब के ओहदे को दिखाती हुई नेमप्लेट, पेन स्टैंड, और एक छोटा कैलेंडर रखा था. उन दिनों बड़े सरकारी अफसरों के दफ्तर ऐसे ही होते थे.

कपूर साहब ने मुस्कुराकर पूछा “कहिये, जनाब!...कैसे इधर आना हुआ सर?”

“बस ऐसे ही कपूर साहब.....आप से ही मिलने आ गये.” मिर्ज़ा ने हँसते हुए जवाब दिया.

इतने में प्यून चाय और सॉल्टेड काजू ले आया और मेज पर रख कर चला गया.

कपूर साहब ने हँसते हुए कहा “लीजिये सर.”

मिर्ज़ा ने चाय का कप उठाते हुए कहा “थैंक्यू कपूर साहब, आप भी लीजिये.”

फिर चाय की चुस्कियों के बीच बात चली. मिर्ज़ा ने पूछा “किस बैच के हैं कपूर साहब आप?”

कपूर साहब ने मुस्कुराकर कहा “आई बिलॉन्ग टु नाइंटीन सिक्स्टी बैच....पंजाब कैडर......एंड यू सर?”

मिर्ज़ा ने सॉल्टेड काजू खाते हुए कहा “वेल....माईसेल्फ फिफ्टी-फाइव बैच.....यू.पी कैडर”

कपूर साहब बोले “ओह!....क़्वाइट् सीनियर सर.”

मिर्ज़ा चाय पीते हुए हँस कर बोले “ह्म्म्म...क़्वाइट ए बिट.”

फिर मिर्ज़ा ने पूछा “व्हाट अबाउट दि करेंट सिनारियो ऑफ इंडस्ट्रियल डेवेलप्मेंट इन यू.पी., कपूर साहब?”

कपूर साहब ने कहा “एवरेज ही है सर....बट इट विल टेक टाईम.....इन यू.पी., इट इज़ डिफिकल्ट टु मोबिलाइज़ पीपुल हियर टु इंडस्ट्री....दे प्रिफर एग्रीकल्चर एंड वेरी सेंटीमेंटल अबाउट देयर लैंड. सो इट्स नॉट दैट ईज़ी.”

बातों ही बातों में मिर्ज़ा ने अपनी बात रखी “कपूर साहब, सौघरा की लेदर इंडस्ट्री के एक बड़े कारोबारी हैं....सैयद सरफराज़ बेग.....नाम सुना है आपने?”

कपूर साहब ने जवाब दिया “जी, जी....उन्हें कौन नहीं जानता सर!”

मिर्ज़ा काजू का टुकड़ा उठाते हुए मुस्कुराकर बोले “...असल में मेरे वालिद हैं वो, कपूर साहब.”

कपूर साहब के चेहरे से मुस्कान गायब हो गयी. उन्होने धीरे से कहा “क्या?”

“जी कपूर साहब......मैं उन्हीं का सबसे छोटा बेटा हूँ” मिर्ज़ा ने कहा.

आगे मिर्ज़ा बोले “असल में वह कानपुर और माधवपुर में भी अपना बिजनेस बढ़ाना चाहते हैं...और इस बाबत उन्होनें आपके डिपार्टमेंट में भी अपनी एप्लीकेशन भेजी थी, आज से लगभग साल भर पहले....मगर अभी भी वह एप्लीकेशन पेंडिंग है डिपार्टमेंट में किसी जगह पर, जबकि सारी फॉर्मेलिटीज़ हो चुकी हैं, कपूर साहब......मै केवल ये जानना चाह रहा हूँ कि फाइल कहाँ और क्यों रुकी हुई है?...उसमें क्या ऑबजेक्शन है? आप प्लीज़ पता करके बता दीजिये, और अगर आपके लिये पॉसिबिल हो तो हमारी मदद भी कर दीजिये.....हमारे घर के बिजनेस का कुछ फायदा हो जायेगा कपूर साहब.”

कपूर साहब ने कहा “...ये तो बाबू से फाईल मँगवा कर देखनी पड़ेगी सर, कि क्यों मंज़ूरी नहीं मिली है अभी तक….वह बाबू आज छुट्टी पर है शायद.”

मिर्ज़ा मुस्कुराकर बोले “...बाबू को क्या बुलवाना कपूर साहब.....छोटा आदमी है वह तो. हम और आप यहाँ बैठ कर मामला सुलझा लेते हैं न, आपसदारी की बात है ये तो....” फिर मिर्ज़ा ने चाय का प्याला होठों से लगाया.

कपूर साहब चुप थे, और मिर्ज़ा को देख रहे थे, जैसे मिर्ज़ा की कही बात की थाह लेना चाह रहे हों.

मिर्ज़ा ने फिर सॉल्टेड काजू मुँह में रखते हुए मुस्कान के साथ कहा “...वैसे कपूर साहब, फाइल तो आपकी भी घूम रही है वहाँ.....दिल्ली में....”

कपूर साहब खामोश थे.

“....विजिलेंस डिपार्टमेंट में.......पता ही होगा ये आपको तो.” यह कहते हुए मिर्ज़ा ने कुटिल मुस्कान के साथ बड़े सहज भाव से चाय का एक और घूँट पिया.

कपूर साहब अभी भी चुप थे.

“...वैसे ज़्यादा मोटी तो हैं नहीं फाईल अभी.” मिर्ज़ा ने चाय पीते हुए कहा.

मिर्ज़ा पूरा होमवर्क करके आये थे. यहाँ आने से पहले उन्होनें दिल्ली के अपने भरोसेमंद लोगों से कपूर साहब के बारे में काफी कुछ खंगाल लिया था.

कपूर साहब के पैर के नीचे से ज़मीन खिसक चुकी थी, फिर भी वह खुद को सम्भाल कर कुछ अकड़ कर बोले “धमकी दे रहे हैं आप?”

“धमकी कहाँ कपूर साहब?...” मिर्ज़ा ने कहा “...मैं तो यह कह रहा हूँ, कि यह तो आपसदारी की बात है.....हम लोग एक ही नौकरी में हैं. आज आप थोड़ी मदद हमारी कर दीजिये, फिर कभी आपकी मदद हम कर दें....दोनों का जब फायदा हो सकता है, तो नुकसान की बात क्यों ही की जाये?”

कपूर साहब की समझ में बात धीरे-धीरे आ रही थी, कि ये मिर्ज़ा हैदर बेग हैं.

थोड़ी देर की मुलाक़ात के बाद मिर्ज़ा किसी विजेता की तरह रौबीली मुस्कान लिये कपूर साहब के चैम्बर से बाहर निकले थे.

फिर वे वहाँ सेक्रेटेरियेट के अपने कुछ दूसरे अफसर दोस्तों के चैम्बर्स में जाकर उन से भी मिले. ताल्लुक़ात की अहमियत क्या होती है, और क्या हो सकती है, मिर्ज़ा अच्छी तरह से जानते थे.

उन्ही में से एक दोस्त के चैम्बर मे जब वह बात कर रहे थे तो उन्होनें टेलीफोन से एक कॉल करने की इजाज़त माँगी. उनके अफसर दोस्त ने मुस्कुराकर कहा “आप भी क्या बात करते हैं मिर्ज़ा! आराम से कीजिये फोन.”

मिर्ज़ा ने फोन घुमाया. दूसरी तरफ व्यक्ति ने फोन उठाया था.

मिर्ज़ा की बात हो रही थी “...हाँ, कौन?....दीवान?....घर पर हो?....ओ.के....सुनो दीवान, …..बरफखाने चले जाना तुम.....हाँ, और लेते आना उनको.....क्या?...वहीं, नॉवेल्टी में....वहीँ रहूँगा मैं कल दिन भर तक....देर शाम में जाऊँगा घर.....हाँ, ओ.के...ठीक है....बॉय!”

फिर सेक्रेटेरियेट के अपने सब काम खत्म करके, और वहाँ पर अपने लोगों से मिलकर मिर्ज़ा बाहर निकलकर सड़क पर आये और चारबाग रेलवे स्टेशन के जाने के लिये एक ताँगा रोका. बगल में ही एक चाय की दुकान थी जहाँ ऑल इंडिया रेडियो पर फरमाइशी गीतों का कोई कार्यक्रम चल रहा था. किसी सज्जन ने गुरुदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ के एक गीत की फरमाईश की होगी, जो उस समय बज रहा था. मिर्ज़ा ताँगे पर चलने लगे और वह गीत उनके कानों में पड़ रहा था जिसका स्वर ताँगे के दूर जाने के कारण हल्का होता जा रहा था. गीत बज रहा था -- 

“....ज़रा हिंद के रहबरों को बुलाओ,

ये शीशे ये गलियाँ ये मंज़र दिखाओ

जिन्हें नाज़ है हिंद पर उनको लाओ,

जिन्हें नाज़ हैं हिंद पर वो कहाँ हैं....कहाँ है....कहाँ हैं.....”

ताँगे पर मिर्ज़ा ये गीत सुनते स्टेशन की ओर चले जा रहे थे.


 


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