आंखों का दायरा
आंखों का दायरा
शाम का धुंधलका गहराता जा रहा था, बस्ती से कुछ दूर बने एक मकान के पास लगभग 14-15 वर्षीय दो लड़के छिप कर खड़े थे, चेहरों से ही वे दोनों अधीर दिखाई दे रहे थे।एक लड़का जो उम्र में कुछ बड़ा था, उसने दूसरे से कहा, "सुन अंदर क्या बातें हो रही हैं।"
दूसरे ने खिड़की से कान लगा कर सुना और कुछ क्षण सुनने के बाद पहले से कहा, "भैया, उसका पति कह रहा है कि रात की पारी है, वो दस मिनट में चला जायेगा और वह कह रही है कि बाद में वह बच्चे को दूध पिला कर सुला देगी।"
अंतिम वाक्य कहते-सुनते दोनों की आखों में लाल डोरे तैरने लगे और वे दूसरी दीवार की तरफ चले गये, जहाँ मकान के अंदर झाँकने के लिए उन्होंने आज ही एक छेद किया था। कुछ मिनटों की प्रतीक्षा के बाद स्कूटर शुरू होने की आवाज़ आई, जिसके मंद पड़ते ही बड़े लड़के ने दूसरे को आगे से हटाया और अपनी एक आँख छेद से सटाई।
जैसा वह चाह रहा था, छेद के लगभग सामने ही, उसी तरफ मुंह किये हुए वह महिला अपने बच्चे को अपना दूध पिला रही थी, वह लड़का उस महिला को नीचे से ऊपर तक निहारने लगा, फिर गौर से उसके चेहरे को देखने लगा।
उधर छोटे लड़के की बेताबी बढती जा रही थी, उसने बड़े लड़के की पीठ पर हाथ रखा। हाथ का स्पर्श पाते ही बड़े लड़के की तंद्रा भंग हुई और वह मुड़ गया। छोटे लड़के ने उससे फुसफुसाते हुए पूछा, "भैया क्या देखा?"
बड़े लड़के ने शून्य में निगाह ठहरा दी, और ठंडे स्वर में बोला, "कुछ नहीं रे, माँ की याद आ गयी... चल चलते हैं।”
और यह सुनते ही लाल पड़ी दीवार का रंग सफ़ेद में बदलने लगा।