बूढ़ा
बूढ़ा
टिक्कड़ ही तोड़े हैं
घर भर की नज़र में
सदा उसने
वह जानता है
उसकी बिवाइयों और झुर्रियों में फँसी
रागिनी
न रोटी देती है न खाट
फिर भी वह उसे गाता है
तम्बाकू या खैनी की तरह
अपने हाडों में चढ़ाता है
वह जानता है
समझता भी है
पर साँटे खाकर भी
बूढ़े बैल सा
टुकर टुकर
वहीं
सूखी खोर में
मुँह मार लेता है
और सफेद बादलों का
आँखों में अक्स लिऐ
जाने कब
गोडी डाल देता है
यहाँ दूर
शहर की तमाम उलझी सुविधाओं के बीच
एक ख़त आया है कोना कटा -
‘बूढ़ा नहीं रहा’
अगले दिन पाता हूँ
बैठक में एक फोटो लगा है
और नीचे लिखा है
पिता
पुस्तक का वह पृष्ठ
अभी तक मुड़ा है
जिस पर छपी है
एक बहुत ख़ूबसूरत
अफ्रीकी कविता।