उपेक्षित अपनों के बीच
उपेक्षित अपनों के बीच
उपेक्षित अपनों के बीच
--दिविक रमेश
अपने शहर के
सबसे मासूम हिस्से को
छूना चाहता हूँ मैं।
मैं वहाँ के
किसी वृक्ष से लग लग कर
देर तक रोना चाहता हूँ।
मैं शहर के
उस मासूम हिस्से को
अपनी देह पर लीपूँगा।
मुझे आज तक
अपने घर की महक
भूली नहीं है।
मुझे आज भी याद है
बाजरे की कचिया बाल का स्वाद
फावड़ा लिऐ
खेत में पानी देते
पिता का चेहरा
सच तो यह है
मैं कभी भूला ही नहीं।
कच्ची-पक्की में
धाँधू कुम्हार का जो लड़का
मेरा सहपाठी था
उसे ढूँढ़ कर
मैं गले लगाना चाहता हूँ।
मैं बचपन की उस साँवली लड़की को
बता देना चाहता हूँ
कि उसके साथ खेलते हुऐ पकड़ा जाकर भी
मैंने कभी नहीं माना
कि दोष मेरा था।
मैं अपने इस शहर के
सबसे मासूम हिस्से को छूना चाहता हूँ
उसी हिस्से से
खोद कर माटी
मैं कविता के चाक पर रखूँगा
और गामोली
कविताओं के सृजन को
सुबह की आँच में रख दूँगा।
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