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बस मैं एक माँ हूँ

बस मैं एक माँ हूँ

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तुलसी के बिरवे के पास, रखा एक जलता दिया
जल रहा जो अकल्पित, मंद मंद, नित नया 
बिरवा जतन से उगा जो तुलसी क्यारे मध्य सजीला 
नैवैध्य जल से अभिषिक्त प्रतिदिन, वह मैं हूँ 
सांध्य छाया में सुरभित, थमी थमी सी बाट 
और घर तक आता वह परिचित सा जो उलटता आंच पर, पकाता रोटियों को, धान को 
थपकी दिलाकर जो सुलाता भोले अबोध शिशु को लघु पथ 
जहाँ विश्राम लेते सभी परिंदे, प्राणी, स्वजन 
गृह में आराम पाते, वह भी तो मैं ही हूँ न 
पदचाप, शांत संयत, निःश्वास गहरा बिखरा हुआ
कैद रह गया आँगन में जो, सब के चले जाने के बाद 
हल्दी, नमक, धान के कण जो सहजता मौन हो कर 
जो उलटता आँच पर, पकाता रोटियों को, धान को 
थपकी दिलाकर जो सुलाता भोले अबोध शिशु को
प्यार से चूमता माथा, हथेली, बारम्बार वह, मैं हूँ 
रसोई, घर दुवारी, पास पडौस, नाते रिश्तों का पुलिन्दा
जो बाँधती, पोसती, प्रतिदिन, वह, बस मैं एक माँ हूँ!


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