तक़सीम (बँटवारा) (इंसान का इंसान से)
तक़सीम (बँटवारा) (इंसान का इंसान से)
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दिल अलग अलग हैं ज़बानें अलग अलग,
और हर ज़बां पे फिर हैं फ़साने अलग अलग,
कोहराम मच गया है गुलिस्तान-ए- हिंद में,
सब बुलबुलें गाती हैं तराने अलग अलग,
दरियाओं के रुख मुड़ के घरों में उतर गए,
मुँह तक पहुँच गए हैं मुहाने अलग अलग,
एक ही मक़तूल के क़ातिल हैं सब के सब,
हैं सबके पास अपने बहाने अलग अलग,
औरों की छोड़ तेरी ही आँखों की बात ले,
देखें हैं इनमें मैंने ज़माने अलग अलग,
हमने तो नहीं देखा के बस्ती को देख कर,
असरात दिखाऐ हों हवा ने अलग अलग,
इक ग़म में एक साथ सब मरते तो मज़ा था,
मारे हैं ग़म से ज़्यादा दवा ने अलग अलग,
तकसीम का ये हाल है, मैं मर भी गया तो,
पहुँचेंगे मुझे दोस्त उठाने अलग अलग,
कब एक होगा घोंसला-ए-हिंद देखिये,
कब तक चुगेंगी बुलबुलें दाने अलग अलग.