हमसफ़र
हमसफ़र
बांहें पसारे मिलते हैं कुछ रास्ते
पुराने दोस्तों की तरह,
यादों का हाथ थामे
मीलों पसरे सन्नाटे में,
पेड़ों से गुज़रती
हवा की स्वर-लहरियों में लम्हा-लम्हा
डूबते जाने का अहसास,
ठीक वैसा ही है जैसे
सर्द रात की आगोश में,
गर्म चाय का प्याला थाम
हौले-हौले से उतरती है
रगों में कुनकुनी सी हरारत।
कितने धूपिया सवेरे,
तपती दोपहरें,
पिघले सोने-सी शामें,
अंतहीन मुलाकातों-सी रातें,
इन्हीं रास्तों को नापते हुए
गुज़ारी हैं हमने।
एक समय था जब
अमराई की छाँव तले
घंटों बैठ कर,
दीन-दुनिया से बेखबर
आंखों-आंखों में किया
करते थे हम,
यहाँ-वहां की कितनी बातें।
बतकही का वह अल्हड़ रिश्ता
पतझर में झरे फूल सा
झर कर कहीं बिखर गया,
बीते दिनों को फिर से
जीने की चाहत में
लौटती हूँ उसी मोड़ पर,
जहाँ घास, दूब, गाछ
सब पहचानते हैं मुझे,
बस इतना ही फर्क है
कि तुम्हारी पहचान के दायरे में
अब मैं शुमार नहीं,
अब तुम मेरे हमसफ़र
हमराह नहीं।