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प्रेम कविता

प्रेम कविता

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औरत होकर प्रेम कविता लिखती हो,
बड़ा जोखिम उठाती हो,
बेजा हिमाकत करती हो।
प्यार-व्यार तुम्हारे बूते की बात नहीं,
लिखना ही है तो लिखो
अपनी पीड़ा का दस्तावेज,
आँसुओं की नमी में पगी
औरतपने की लाचारी,
हारी-बीमारी,
बच्चे, परिवारदारी।
कुछ नया लिखना चाहो तो रचो
नारीवादी रचना कोई,
जिसमें फूटते हों विद्रोह के अँकुर,
क्रांति की लपट भभक कर जलती हो,
जिसमें बहनापे की बात चलती हो।
प्रेम कविताएँ तो देह की भाषा में
जिस्म के उतार-चढ़ावों से गुजर कर,
स्पर्श के छंदों में ढल कर,
गोपन रहस्यों की बात करती हैं।
ऐसी अभिव्यक्ति हो तो
कविता रस देती है,
पत्र-पत्रिकाओं में छपती हैं।
कागज कलम का मोह त्यागो,
चूल्हा चौका संभालो,
तीज त्योहार निभाओ,
खुद को सजाओ-संवारो,
गली-मुहल्ले की खबरों
में मन लगाओ,
छोड़ो भी क्या बेसुरा राग
अलापती हो,
औरत होकर प्रेम कविता लिखती हो!


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