वक़्त
वक़्त
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निकल तो गए तुम
मुट्ठी से सूखे रेत की तरह
कुछ साँसे मेरी रह गई
चंद लम्हे भी छूट गए
नहीं-नहीं !
बांधना नहीं है तुम्हे
बस एक बार
ले चलो फिर से मुझे
गली के उसी मोड़ पर...
पुरानी सी दीवार के पीछे
मिट्टी के टीले पर...
जहाँ से दिखाता था
गुलमोहर सा सुर्ख उगता सूरज
बस...
रुक जाओ वही पर थोड़ी देर
वो साँसे भर लूँ मैं
वो लम्हे जी लूँ मैं
कुछ अपनी तरह से!