सोचता हूँ
सोचता हूँ
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ज़हन में मैं ऐसा सफ़र सोचता हूँ
जुदा सब से अपना नगर सोचता हूँ
जो दिल से ही निकले दिलो तक ही पहुँचे
बनाऊँ मैं ऐसी डगर सोचता हूँ
चलो इस बहाने मैं खुद से मिलूंगा
बुरा क्या है खुद पे अगर सोचता हूँ
मुक़म्मल मेरा फ़ैसला क्यूँ न होगा
मैं हर बात पे सोचकर सोचता हूँ
शहर अपना है और बस्ती पराई
कहाँ पर बनाऊँ मैं घर सोचता हूँ
बहुत मिल चुका तुमको ख़्वाबों में अब तक
मिलन की मैं सूरत दिगर सोचता हूँ
उधर जान लेते है जाने वो कैसे
वो हर बात जो मैं इधर सोचता हूँ
पराया मैं खुद को भी लगता हूँ उस दम
मैं रिश्तों पे ज़्यादा अगर सोचता हूँ