स्याही
स्याही
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मेरी प्यारी स्याही,
मेरी कविताओं की हमराही।
कल तक तू मेरी दवात में हुआ करती थी,
शिद्दत मेरे हर जज़्बात में हुआ करती थी।
अब तो ज़माना बॉलपेन की ओर बढ़ा है,
हर बदमिजाज़ पर शायरी का शौक चढ़ा है।
तरस गई हैं निगाहें अब नफासत की तलाश में,
तब्दील हो गई है कलम भी ज़िन्दा लाश में।
मुल्क औ माशूक दोनो अब फेसबुक की बात है,
स्माइली और लाइक बस यही अब जज़्बात है।
क्या औकात रह गई कलम की आज "कुँवर",
जहाँ बटनो पर लफ्ज़ और स्क्रीन पर हर बात है।