ज़रूरत
ज़रूरत
अपनी खामोशी को उधार के
शब्दों में पिरो कर,
न जाने कितनी बार परोसा है तुमने
अधपका, अधकचरा सच,
न जाने कितनी ही बार
उस बकबके सच की कड़वाहट
छुपाई है मैंने,
झूठी मुस्कराहट की आड़ में,
झूठ के खोखलेपन से
न तो मैं अनजान थी
और न ही तुम बेखबर,
जिंदगी जीने की लाज़मी
शर्त के मुताबिक,
उस आधे-अधूरे रिश्ते
से अपना अधखुला वजूद
वैसे ही ढांपा है मैंने,
जैसे शुरुआती दिनों में हैसियत की
पैबंद लगी चादर को ओढ़ कर,
सिर ढंकने पर पैर उघड़ जाते थे,
और पैरों को लपेटते ही
आंखें बेपर्दा हो जाती थीं।
तुम कहते हो कि जिंदा रहने के लिए
कुछ समझौते,
कुछ झूठ,
और बहुत सारी खुशफहमियाँ
जरूरी हैं।
पर मुझे ज्यादा जरूरी लगता है...
एक दूसरे का साथ,
परस्पर विश्वास,
हिस्से में आई हो भले ही
खुरदरी जमीन
या फिर अनंत-असीम आकाश।