वो बंद पड़ा कमरा
वो बंद पड़ा कमरा
आज यू हीं बैठे बैठे मन मे कुछ पुरानी यादें अपनी जगह बना रही थी। शायद ये कहूँ कि मैं और मेरी तन्हाई बाकी खामोशी से भरा वो कमरा जिसकी पीले रंग की दीवारों को मैंने और रंग बिरंगे बना दिए थे । वो रंग का डिब्बा आज भी किसी की राह देखते हुए मेज पर पड़ा था और चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था कि अरे मैं अभी भी बेरंग पड़ी ज़िन्दगी मे रंग भर सकता हूँ पर क्या ही करूँ मैं रंग भरा डिब्बा अब इंसानों के ज़िन्दगी कि उथल पुथल मे खुद बेरंग पड़ा हूँ। वही बगल में पड़े वो बॉक्स जिसको मैं अपने अतरंगी पेन्सिल और रबर से भर दिया करती थी और अपने दोस्तों को दिखा कर खुश हो जाया करती थी क्यों कि तब तो असली खुशी यही समझ आती थी पर अब समझदारी कि बोझ में शायद असली ख़ुशी के मायने खो से गए है। मैं खोयी बैठी थी तभी पीछे से आवाज़ आई अरे मुझे तो भूल ही गई और वो मेरा चूं-चूं ( अरे समझ नहीं आया ? वो छोटा सा गुड्डा जिसमें बस दो बार चाबी भरो तो पूरे दो मिनट मुझे हंसाता था ) आज कहीं उदास खड़ा अपने पुनर्जीवन की आस लगाए हुए था । मैंने बिना कुछ सोचे भर दी चाबी और वो फिर से बिना किसी लोभ प्रलोभ के मुझे हँसाने के लिए तैयार हो गया। और यहाँ समझ आया कि बचपन के ये खिलौने तो इंसानों के कहीं ज्यादा अच्छे है । और तभी नज़र एक बंद पड़ी अलमारी पर पड़ी जिसके अंदर मैंने ना जाने कितनी ही किताबों को सजाये रखा था । पहले मैं और मेरी किताबें अक्सर बहुत सी बातें किया करते थे पर अब शायद वो आपस में ही बात कर लिया है। और फिर किताबें जो जिंदगी के सच से वाकिफ भी होती है । आज फिर मैंने वो अलमारी खोला और किताबों को देखा तो लगा कि किताबें बहुत कुछ बयां कर रही है । आज भी उन किताबों में रंग बिरंगे दृश्य थे वैसे ही पर आकर्षण शायद कम सा था वो बंद किताबों के पीले पन्नों कि वजह से । अभी भी सब कुछ वैसा था पर वो पीले पड़े पन्ने मन में उन किताबों को फिर से पढ़ने के जोश को खत्म कर रही थी। पर आज भी एक सीख दे पा रही थी कि इंसानों का मन ही ऐसा हो गया है कि नई चीजें ही उसे आकर्षित करती है और अब तो उसे पुराने रिश्तों से ज्यादा नए रिश्ते बनाना अच्छा लगता है । जब रिश्तों पर पीली पर्त चढ़ने लगता है तो अब इंसानों में उसको पढ़ने का जोश कहीं मद्धिम सा हो जाता है और अब वो नए रिश्ते बनाने कहीं आगे बढ़ने लगता है । ज़िन्दगी के अंतिम छड़ मे कोई नए और पुराने रिश्ते साथ नहीं होते और हम तब कहीं ज़िन्दगी के असली मायने समझ पाते है । और वापिस लौटने के सारे रास्ते बंद पड़े रहते है । मैं खामोश बैठी अपनी सोच में डूबी रहती हूँ तभी नीचे से माँ आवाज़ लगाती है कि बेटा कहाँ हो तुम चलो ज़िन्दगी में बहुत मुश्किलें है अभी उसे सुलझाना भी तो है मैं बाहर आती हूँ और सुकून भरे कमरे को फिर से बंद कर ज़िन्दगी की समझदारी में उलझते हुए वापिस काम पर लग जाती हूँ । और बचपन बिता सुकून बीता यही सोच बस मुस्करा जाती हूँ और बस कुछ पंक्तियाँ मन में गुनगुनाती हूँ...
बचपन तो गया
जवानी की राह पर खड़े है
जब समझ नहीं तो खुशियां ढूंढ लेते थे
अब समझदारी की नाव पर संवार दुःख की गठरी उठाए बैठे है
ख्वाब, ख्वाहिश और पैसा को ज़िन्दगी मान
हकीकत कि दुनिया से दूर
ख्वाबों को गले लगाए बैठे है...
