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टूटा परिंदा..

टूटा परिंदा..

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“मैंं टूटे पंखों का परिंदा, 

जो पल-पल मरता हैं, 

मगर रहता है ज़िंंदा। 

मैं अपनी ही ख़्वाबों की दुनिया में बसता हूँ, 

मगर चंद खुले आसमाँ को हर रोज तरसता हूँ।

मैं  एक रोज़ हवा में उड़ जाने की चाह मे जीता हूँ, 

बस उस ख़ुशी की सोच कर हर गम को पीता हूँ। 

जब कभी हवाऐंं मेरे चेहरे को छूती हैं, 

ये आँखें मेरी बेबसी के ग़म मेंं रोती है।

जब रात को टिमटिमाते है वो तारे फ़लक में,

ये पिंजरे की सलाखें मेरी चुभती है हलक में। 

हर बच्चा मुझे देखकर खिलखिला के हँसता है, 

मगर टूटे  पंछी की बेबसी को कौन समझता है ।

मैं भी तो हवाअोंं के वेग से लड़ना चाहता हूँ, 

उड़ते हुऐ आसमाँ में बेख़ौफ़ मरना चाहता हूँ। 

ख़ुदा ने  जो दी मुझे बस उसे पाने की चाह है मेरी, 

पहुँचना हैं  वहाँ जहाँ बस राह हैं मेरी।

बताना है जहाँ को मैंं भी हूँ हवाअोंं का बाशिंदा, 

मैं  नहींं टूटे पंखों का परिंदा,  

जो पल-पल मरता है, 

मगर रहता है ज़िंदा... "                                                                                     -अनिकेत 


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