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Aditya Kumar

Children Stories

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Aditya Kumar

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सर्कस

सर्कस

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उस दिन जब स्कूल में अध्यापक जी ने सबसे 3 रूपए लाने के लिए कहा तब इस किस्से की शरुआत हुई। हम स्कूल खत्म होने का इंतज़ार करने लगे। मैं भी उस भेड़ चाल का हिस्सा था। घर पहुँचते ही मैंने माँ से 3 रूपए माँगे। पहले तो उन्हें लगा शायद मुझे आइस क्रीम खानी होगी, तो उन्होंने साफ़ माना कर दिया क्युकी पिछले ही हफ़्ते मुझे दांत में दर्द के चलते डॉक्टर को दिखाया गया था और उन्होंने चॉकलेट और आइस क्रीम खाने की मनाई की थी। 

पर जब मैंने उन्हें सर्कस के बारे में बताया तब उन्होंने अपने बटुए से 1 रूपए के 3 सिक्के दिए। मैं उन्हें हाथ में लेके खनखनाने लगा। फिर जल्दी से जाकर उन्हें स्कूल बैग में रख दिया। 


दरअसल बात ये थी की पहली बार गांव में सर्कस लगा था। और अध्यापक लोगो ने सारे बच्चो को वहां ले जाने का सोचा। सबसे 3 रूपए लिए गए जो की पास की फीस थी। 


उस वक़्त सर्कस का क्रेज सिनेमा के बराबर ही था और मैं दोनों ही जगह नहीं गया था। मेरा वहां जाना किसी अतरंगी सपने का सच होने जैसा था। में इतना उत्साहित था की उस दिन अपना होमवर्क करना भी भूल गया। रात को छत पे लेट ते वक़्त मैं बस कल के बारे में मनगढ़ना कर रहा था। आखिर कैसा होगा सर्कस। मैंने सुना था की वहां बकरियां एक पतली सी रस्सी पे चलती है। बंदर बॉल को हवा में उछालते हैं और उसे गोल गोल घुमाते हैं । 

मैं गहरी नींद आने तक बस कल की परिकल्पना करता रहा। 


अगले दिन मैं घर में सबसे पहले उठ गया। मेरे अंदर की उत्सुकता ने मुझे रात भर सही से सोने नहीं दिया था। मैं स्कूल के लिए तैयार हुआ और झटपट दौडता हुआ अपनी क्लास में आगया। 

मॉर्निंग प्रार्थना के बाद हम क्लास में मास्टर जी के आने का इंतज़ार करने लगे। हर कोई उत्सुक था सिवाए जतिन के। उसे सर्कस नहीं जाना था। उसने कल ही मना कर दिया था। उसे किसी ने भी क्लास में एक्स्ट्रा एक्टिविटी में भाग लेते नहीं देखा, वो हर वक़्त बस पड़ता रहता था। अटेंडेंस लेते वक़्त मास्टरजी सर्कस के लिए पैसे भी कलेक्ट करने लगे तब मैंने देखा की मेरे बैग में पैसे नहीं थे। 

अचानक की मेरा दिल जोर-2 से धड़कने लगा। मैं क्लॉस के सामने ये नहीं बोलने वाला था की मैंने पैसे गिरा दिया या मैं लाना भूल गया, सब लोग हसेंगे। मैंने अमन से पूछा की क्या वो मुझे ३ रूपए उधार देगा, लेकिन उसके पास सिर्फ 3 ही रूपए थे। मेरा रोल नंबर आने ही वाला था और मैं पूरी तरह से घबरा गया कि अब क्या होगा। क्या मेरा सर्कस जाने का सपना सपना ही रहेगा? मैं मास्टरजी को क्या कहूंगा की मैं पैसे क्यों नहीं लाया? क्या मैं उनसे झूट बोल दू की घर में पापा नहीं थे और माँ के पास पैसे नहीं थे। उस वक़्त मेरा दिमाग़ पृथ्वी की धुरी से घूम रहा था। उसी वक़्त नीचे की पट्टी पे कुछ खनका। मैंने पट्टी हटा के देखी तो 1 रूपए के 3 सिक्के थे। इससे पहले में कुछ सोच पता मास्टरजी ने मेरा नाम बुलाया। मैंने जल्दी से जाके उन्हें 3 रूपए दे दिए। उन्होंने एक टूक मेरी तरफ देखा फिर अगले छात्र का नाम बुलाने लगे। 

लंच के बाद हमारी क्लास का नंबर था। सर्कस स्कूल के पास में था तो हम लोग पैदल ही झुंड में वहां जा रहे थे। ऐसा झुंड हम तब ही बनाते थे जब 26 जनवरी पे पूरे गांव में परेड निकलती थी। उत्साह अपनी चरम सीमा पे था। 

सर्कस पहुंच के हम लोग लाइन में खड़े हो गए और एक-एक करके अंदर जाने लगे। सर्कस एक बड़े से कैनवास के अंदर एक गोल घेरे जैसा था। वहां हर एक चीज़ रंगीन थी मानो कोई अभी होली खेल के गया हो।

हम सब लोग ज़मीन पे बैठ गए और खेल शुरू होने का इंतज़ार करने लगे। तब ही एक आदमी जिसने रंगबिरंगे कपडे पहने थे परदे के पीछे से आया और 3 बॉल को एक सर्कल में हवा में घुमाने लगा। फिर उसने बॉल नीचे रख दी और धारदार चाकुओं को हवा में घुमाने लगा। न जाने कितनी देर तक मैंने पलके नहीं झपकाई। 

कुछ देर बाद वो लोगो ने एक नया सेट लगाया। उन्होंने दो पॉइंट के बीच में करीब २ मीटर उचाई पे एक रस्सी बंद दी। हम सब जानते थे की आगे क्या होने वाला है। तब ही परदे के पीछे से एक बकरी निकल के आई। वहां एक आदमी था जो एक स्टिक से उसे आर्डर दे रहा था। वो स्टिक को जहां रखता, बकरी उस जगह चलने लगती। 

मैंने ऐसा कुछ पहले कभी नहीं देखा था। इसे करना कितना मुश्किल होगा।और भी कई करतब हुए। उस वक़्त ऐसा एहसास हुआ की वक़्त थम जाये। 7 साल की उम्र में आप एक बालक से और क्या ही उम्मीद कर सकते हो। 

सर्कस तो चला गया लेकिन पीछे यादें और दोवारा आने की उम्मीद छोड़ गया। मैंने घर आके अख़बार में आये केलिन्डर में उस दिन को सर्कस डे लिख दिया। और उनके दोवारा आने का इंतज़ार करने लगा। साल दर साल, कई मौसम बदल गए, लेकिन सर्कस नहीं आया आया। हर साल उस महीने मुझे बस उसी का इंतज़ार रहता और फिर एक दिन मैंने खुद को कॉलेज में पाया और उसके बाद मेरे मन में सर्कस का ख्याल कही खो गया। कल रात कुछ लिखते वक़्त एक टाइपो के चलते मैंने सर्कस लिख दिया और अचानक ही वो सब यादें ताज़ा हो गयी। मेरी सर्कस देखने की उम्मीद इंतज़ार में बदल गई जो कभी खत्म नहीं हुआ।  

   

      

    

    

  


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