Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Smriti

Others

4.4  

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समस्या का हल

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"माताजीऽऽ... ओ माता जी...आज घर नहीं जाना है क्या"? अचानक कानों में पड़े इन शब्दों से सावित्री की नींद टूटी। आँख खुली तो देखती है कि सूर्य देवता सर तक आ पहुंचे हैं। सत्रह-अठारह साल का वह युवक जो मंदिर की साफ सफाई में हाथ बंटाता था, सावित्री के सम्मुख खड़ा था। बोला "माताजी यहीं बैठे-बैठे सो गई थी क्या?" उसकी बात को अनसुना करते हुए सावित्री उठ खड़ी हुई और मन्दिर से बाहर जाने लगी।

हां, सो गई थी वह मन्दिर में। सारी रात उलटते पुलटते जो बिताई थी उसने। कलह तो रोज ही होती है घर में किंतु कल रात तो मानो उसकी आत्मा को ही निचोड़ लिया था उसके अपने बच्चों ने। बेटे-बहू, नाती-पोतों वाली थी सावित्री। पांच साल पहले ही पति का स्वर्गवास हो गया था। पिता के स्वर्ग सिधारते ही बेटों ने घर का बंटवारा कर लिया था। वही घर जिसे सावित्री और उसके पति ने खून-पसीने से बनाया था, प्यार से सींचा था। किंतु बंटवारे के बाद भी बेटे-बहू असंतुष्टि ही व्यक्त करते रहते थे और आये दिन वह अपरितृप्ति झगड़े का रूप ले लेती थी। कल पति की बरसी के दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ था। रात भर नींद कोसों दूर रही सावित्री से। सवेरा होते ही शांति की खोज में वह मन्दिर चली आई थी। विचारों की उथल-पुथल में कब मन्दिर के कोने में बैठी-बैठी सो गई उसे पता ही नहीं लगा। सावित्री मन्दिर के निकास द्वार पर पहुंची तो देखा रोज की तरह भिखारी बैठे हैं। खुले पैसे निकाले और बाहर बैठे भिखारियों को बांटने लगी। भिखारियों में तो जैसे होड़ लग गई पैसे लेने के लिए। सावित्री निस्तेज भाव से पैसे निकालकर बस दिए जा रही थी। इधर भिखारी कभी अपने पैसे देखते तो कभी दूसरे के। यह क्या? किसी को एक का सिक्का, किसी को दो का, तो किसी को दस की नोट। यकायक भिखारियों की उस स्पर्धा ने विवाद का रूप ले लिया। अब सबके सब सावित्री पर ही बिफ़रने लगे।

 " दीदी हमको एक दिया इनको दस"

"अम्मा और...अम्मा.. और"

"हमको तो मिला ही नहीं दीदी, हम पहले से खड़े थे"

उस कर्णकटु ध्वनि ने सावित्री को व्याकुल कर दिया। पशोपेश की स्थिति में सावित्री सोचने लगी, "मैंने तो एक भाव से ही वितरण किया, अब किसी को कम तो किसी को ज़्यादा-यह तो नियति है।"

किंतु ग्रहीता को दाता की मनोस्थिति से क्या लेना देना। पाने वाले का तो केवल 'मुझे कितना मिला' से सरोकार होता है। इस भौतिकवादी संसार में समानुभूति की ही तो कमी है।

सहसा सावित्री ने अपनी थैली को मुट्ठी में भींच लिया और भिखारियों से विपरीत दिशा में तेजी से बढ़ने लगी। पीछे से भिखारी आवाज़ देते रहे परन्तु सावित्री मानो बधिर हो गई। सावित्री का आगे बढ़ना था कि इधर भिखारियों ने स्वतः ही संधि कर ली। कुछ क्षण पहले जो दल बवाल मचाने पर उतारु था उसमें जाने कहाँ से इक़रारनामा हो गया। तत्क्षण एक प्रौढ़ व्यक्ति जो संभवतः उनका मुखिया था, सावित्री के सामने जा खड़ा हुआ और बोला "बहिन जी! आपकी जो मर्ज़ी जिसे दे दो, अब हम कुछ न कहेंगे।" सावित्री ने पीछे मुड़कर देखा। अप्रत्याशित दृश्य था - अब कोई नहीं लड़ रहा था, अपितु सभी अपने नेता की हां में हां मिला रहे थे। सावित्री का तो मानो पिंड छूटा । उसने आव देखा ना ताव और बाकी बचे पैसे बेतरतीबी से बांटने लगी। जैसे ही पैसे खत्म हुए भिखारी वहां से खिसक लिए। दूर जाते उन भिखारियों को विचारमग्न सावित्री देख रही थी। मुख पर तुष्टि का भाव था। शायद किसी समस्या का हल मिल गया था।


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