शीशम का पेड़
शीशम का पेड़


बाज़ार में मेरे घर के पास दो शीशम के पेड़ थे। बिल्कुल बाबा की तरह उम्रदराज पर फिर भी एकदम चुस्त दुरुस्त। एक मेरे द्वार से सटा हुआ और दूसरा हमारे पड़ोसी सिंगारे काका के द्वार पर। दोनों पेड़ एकदम जुड़वा लगते थे बिल्कुल एक सी मोटाई, एक सी लंबाई और तो और डालियां भी लगभग एक जैसी। भला पेड़ों के भी जुड़वा हो सकते हैं ऐसा कभी सुना तो नहीं। और तो और दोनों ही पेड़ों पर सैकड़ों बगुले भी रहते थे।
हमारे द्वार के शीशम के बगुले थोड़ा सीधे थे ऐसा मुझे लगता था क्यूंकि हम ने तो कभी लग्गी न बांधी उन्हें भगाने के लिए। पर सिंगारे काका के द्वार के शीशम के बगुले बड़े शैतान थे, बड़ा शोर करते थे और उन्हें भगाने के लिए काका ने बड़ी सी लग्गी बांध रखी थी पेड़ से वो जब भी शोर करते, काका लग्गी को जोर - जोर से हिलाते और साथ में चिल्लाते भी बेचारे रात के रात सोते नहीं थे। और फिर बाबा कहते ' अरे बस करौ हो, वै तोहरे भगाए न भगिहैं , तू भगाईब बंद कै देव तौ वै एतना परेशानौ न करै '। और फिर हम और बाबा हंसते एक संतुष्टि के साथ के हम उन बगुलों को परेशान नहीं करते तो वे हमें भी परेशान नहीं करते। आखिर वो पेड़ उनके घर जैसा ही तो है। काफी अच्छे दोस्त थे मै और बाबा।
और फिर एक दिन भारत के तेजी से बढ़ते विकास ने उन्हें काट दिया। कहते हैं ऐसा सड़को को और चौड़ा करने के लिए किया गया था ताकि इंसान के जीवन की रफ़्तार थोड़ी और तेज हो सके। पर क्या ये वाजिब था ? अपने जीवन की रफ़्तार को बढ़ाने के लिए किसी और के जीवन की रफ़्तार एकदम ही रोक देना। ऐसा कोई कैसे कर सकता है भला ? और उन बगुलों का क्या ? वो तो अचानक से बेघर हो गए थे। कोई भला कैसे कर सकता है किसी को बेघर? जिस दिन वो पेड़ कटे थे, सैकड़ों अंडे फूट कर सड़क पे बिखर गए थे और उनके साथ कई छोटे - छोटे चूजे भी, कुछ तो तुरंत ही मर गए थे और कुछ अब भी तड़प रहे थे। पर किसी को भी फिक्र न थी उनकी।
बेघर होने और अपनों को खोने का दर्द कितना गहरा होता है, जानता है इंसान, फिर भी...।