मेरे बाबा
मेरे बाबा


जबसे उनको जाना है तबसे वो बूढ़े ही हैं। पर अब थोड़े ज्यादा बूढ़े लगते हैं। फिर भी बढ़ती हुई उम्र भी उन्हें चलने से नहीं रोक पाती। मेरी सुबह उनके साथ ही शुरू होती थी। उनसे बहुत कुछ सीखा है मैंने, बांस की पिचकारी, टट्टर, और चारपाई बनाना, रस्सी बुनना, बंवर की डलियां बनाना, पुरइन की पाढ़ी (बुखार की अचूक दवा) ढूंढ़ना, पुआल की बखारी बनाना, खेती- बाड़ी और बगीचे की देखभाल करना, कितना कुछ सीखा है उनसे। जिंदगी बहुत मजेदार थी उन दिनों।
गर्मियों की शुरुआत महुआ से हुआ करती थी। सुबह होते ही हम लेके बोरी बहुंच जाया करते थे बगीचे में और महुआ फैला होता था दूर- दूर तक बड़े - बड़े मोतियों के दाने की तरह। फिर कई हफ्तों तक महुए में व्यस्त रहने के बाद आम के टिकोरेे दस्तक दे देते थे और फिर उनके चक्कर में तो पूरा दिन निकल जाता था। बाबा कहते थे सतुआन से पहले टिकोरे नहीं तोड़ने चाहिए, पर ये बात मुझे अच्छी नहीं लगती थी, भला क्यों नहीं तोड़ने चाहिए टिकोरे, ऐसा कहीं लिखा तो नहीं है।
शाम होते ही द्वार पे महफ़िल लग जाती। कई लोग इकठ्ठा हो जाते और फिर शुरू होता ठहाकों का दौर, मै उस महफ़िल में शामिल तो नहीं हो सकता था पर हां दूर से मजे मै भी ले सकता था। और फिर रात को बाबा के साथ द्वार पे सोना, शुरुआत कहानियों से हुआ करती थी। विक्रम बैताल, रानी सरंगा, सूरा गाय, चुड़ैल का दामाद और नित बोया धान और भी कई कहानियां मेरे डेली डोज का हिस्सा थी। वो सब जिंदगी के किसी हसीन सपने की तरह है आज भी। चांदनी रात, खुला आसमान, टिमटिमाते तारे, शीशम के पेड़ पर बैठे बगुलों का शोरगुल, सर के नीचे बाबा के हाथ की तकिया और रेडियो पे ' जिंदगी और बता तेरा इरादा क्या है ' राम अख्तर का गीत, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का संगीत और मुकेश जी की आवाज, उड़ा देती थी मेरे मन को कबूतर बना के।
जिंदगी अब तो जैसे उलझ सी गई है। मंझे में फंसे किसी कबूतर की तरह हो गई है, बस फड़फड़ा के रह जाती है।