सेकेंड हैंड जिंदगी
सेकेंड हैंड जिंदगी
दूर कहीं आसमान स्याह दिख रहा था, पर मालूम पड़ता था कि जल्द बारिश होगी। साला! आज रेन कोट भी नहीं लाया था, बाईक भी तेज़ चलाने पर तेज़ नहीं चल रही थी। हट साला! क्या जिंदगी हो गई है।
पलाश, एक कपड़े की दुकान में काम करता था, पगार पंद्रह हजार महीना मिल जाता था पर एक पैसा भी न बचता। महीने के आखिर में आते-आते पचास या सौ रुपये ही बचते थे।
दुकान वह साइकिल से जाता था, पर पैडल मारते-मारते दम निकल जाता उसे डर लगा रहता कि अस्थमा का पेशेंट न हो जाय।
'अजी सुनों- क्या साइकिल से आया-जाया करते हो, एक मोटरसाइकिल क्यों नहीं ले लेते?' पलाश की बीबी ने उससे कहा, जब वह मंजन कर रहा था।
मुँह में मंजन के घोल को पिच्च से थूकता हुआ पलाश बोला- 'अच्छा, अगर गाड़ी ले लूंगा तो बिजली का बिल, महीने का राशन, बच्चों की फ़ीस कहाँ से भरूंगा? और ये साला 'हाऊस टैक्स' और 'वाटर टैक्स' सालाना घाव है मेरे लिए।'
'अरे ! ठीक है, पर शरीर का ध्यान देना ज़रूरी है, कब तक साइकिल का पैडल मारते रहोगे?' प्रियंवदा ने आलू छिलते हुए कहा।
पलाश मंजन करके नहाने जा रहा था-'अच्छा ठीक है बतकही कम करो और जल्दी से नाश्ता और टीफिन तैयार करो, अगर लेट हो गया तो मालिक की डाँट सुननी पड़ेगी'।
सुबह के दस बजकर तीस मिनट हो रहे थे, कपड़े की दुकान खुल रही थी। यह दुकान बनारस की फेमस दुकान थी, बड़े-बड़े माल खुलने के बावजूद यह दुकान खचाखच कस्टमरों से भरी रहती थी। दुकान का मालिक एक मारवाड़ी था जिसे व्यापार करना अच्छी तरह आता था। उसने अपने दुकान पर कर्मचारियों से कह रखा था कि कैसे भी करके ग्राहकों को संतुष्ट करना है और माल बेचना है। दीपावली तक जिसने भी पाँच लाख तक की बिक्री करा दी उन सबकी तनख्वाह 'तीन हजार' बढ़ जायेगी।
यह घोषणा सुनकर पलाश की बाछे खिल आयी, अब तक वह महीने के खर्च का हिसाब लगाने लगा। राशन के 'ढाई हजार', बच्चे की फ़ीस और बस का मिलाकर 'पंद्रह सौ',धोबी का तीन सौ, बिजली का बिल 'दो हजार' ,पी.पी.एफ.अकाउंट का 'चार हजार','बजाज कार्ड' पर एक फ्रिज लिया था उसकी ई.एम.आई. का 'एक हजार' और छिटपुट खर्च मिलाकर 'बारह हजार।'
इस समय उसे बारह हजार ही मिल रहे थे। सोचा कि दीपावली का टारगेट अगर वह पूरा कर ले तो उसकी तनख्वाह पूरे पंद्रह हजार हो जाएगी। और हो सकता है कि एक सेकेंड हैंड मोटरसाइकिल वह ख़रीद सके वैसे भी अब बढ़िया सेकेंड हैंड मोटरसाइकिल भी किस्तों में मिल रही थी।
पलाश के साथ कई और कर्मचारी थे, जिन्होंने दीपावली का टारगेट पूरा किया था ,उन सबकी तनख्वाह तीन हजार बढ़ गई। पलाश खुश था क्योंकि अब वह गाड़ी खरीद सकता था, भले ही सेकेंड हैंड। सच्चाई यह थी कि 'मिडिल क्लास की जिंदगी सेंकेड हैंड की तरह ही थी' पर वह इसमें भी खुश रहना जानते थे, भले ही उनका तेल निकल जाय।
रात का समय था, चाँद एक -चौथाई ही निकला था लेकिन वह भी पलाश को पूरा चमकता हुआ -सा लग रहा था। 'हट साला! अब तो पगार पंद्रह हजार हो गया है, ए प्रियम!सुनती हो- अब तुम्हारी गाड़ी आ जाएगी।' पलाश ने बांयी करवट लेकर पत्नी की मुँह की तरफ देखकर कहा। वह प्यार से अपनी पत्नी को प्रियम बुलाता था, बातों ही बातों में 'साला' शब्द कहना अपने दिवंगत पिता से सीखा था। उसके पिता भी बात करते-करते इसी 'खैनी' का का प्रयोग करते थे। बारिश खूब तेज शुरू हो चुकी थी, पलाश ने अपनी बाईक जल्दी से एक पेड़ के नीचे खड़ी की और अपने एक चाय वाले की गुमटी के छप्पर के नीचे खड़ा हो गया। वह लगभग पुरी तरह से भीग चुका था, पर गनीमत थी कि वह दुकान से घर लौट रहा था इसलिए गीले होने की परवाह न करके वह कुल्हड़ से चाय पी रहा था कि अचानक एक विस्फोट हुआ मालूम पड़ता था कि कान के परदे फट पड़ेंगे उस आवाज़ से।
क्या हुआ? एक आवाज़ आई।
'बिजली गिर पड़ी है एक पेड़ पर'- एक आदमी चिल्लाया।
पेड़ पर! पलाश चौंका,भागकर वह गया और वहाँ का मंजर देखकर उसके पेशानी पर बल पड़ गये क्योंकि यह वही पेड़ था जिसके नीचे उसने अपनी बाईक खड़ी की थी। बिजली गिरने के कारण वह दुहर कर जल रही थी और लोग उसकी आग बुझा रहे थे।'यह आपकी गाड़ी थी भाई -साहब, अच्छा हुआ जो आप इसके साथ नहीं खड़े थे और गाड़ी का क्या है ,नई आ जायेगी'।
नई....। पलाश ने मन में कहा- 'साला अभी इसी सेकेंड हैंड की किस्त पूरी नही हुई थी।' वह बुझते मन से घर जाने की ओर मुड़ा। उस गाड़ी की लाश को वहीं छोड़कर, वह तेजी से घर की तरफ बढ़ रहा था। अचानक से उस आदमी के कहे शब्द उसकी कानों में गूँजे-'अच्छा हुआ भाई साहब जो आप इसके साथ नहीं खड़े थे..।'
