रण.. रणथम्भौर में..
रण.. रणथम्भौर में..
कुछ साल पहले अचानक से पता नहीं क्यों मुझे जयपुर से रणथम्भोर जाने का भूत सवार हो गया।
मैंने 1 अक्टूबर की सुबह सवाई माधोपुर के लिए पैसेंजर ट्रेन पकड़ ली। थोड़ा बहुत गूगल तो किया था मैंने।ये भी पता था कि अक्टूबर से मार्च तक ही खुला रहता है और आज ही खुल रहा है "रण थाम्भोर नेशनल पार्क"। इसलिए और ज्यादा excitement था इसी excitement में वहाँ उतर के टूरिस्ट इन्फॉर्मेशन डेस्क पे थोड़ी जानकारी लेने की ग़लती हो गयी, उन्होंने तो जानकारी दी लेकिन साथ में डरा भी दिया कि "1st day है, काफी रश होगा। टिकट काउन्टर पे जा के देख लो, सफारी का टिकट मिल भी सकता है, नहीं भी मिले क्योंकि बस एक घण्टे के लिए ही टिकट काउंटर खुलता है। 90 दिन पहले से आज के लिए ऑनलाइन बूकिंग हो जाती है। यहां तो काउंटर पे बस 25 % टिकट ही मिलेगा।"
सुन के तो पूरा मूड खराब हो गया। अब क्या करना है यही सोचते हुए स्टेशन से बाहर निकल ही रही थी कि पीछे से किसी ने आवाज़ दी। चेहरा ध्यान से देखने पे याद आया कि ये तो टूरिस्ट इन्फॉर्मेशन डेस्क में पीछे बैठा मेरी बात सुन रहा था। बोला "आज तो आपको सफारी का टिकट मिलना बहुत मुश्किल है। अगर आज घूमना है तो मैं 800 रूपये में कैन्टर में करवा दूँगा।" उसने अपनी Tour & Travles का कार्ड पकड़ाते हुआ कहा कि "आप दूसरे Tour & Travles में भी पता कर लो सबका यही रेट है। मेरे नंबर पे कॉल कर लेना 15-20 मिनट में मैं स्टेशन वापस लौटूंगा तो आपका फॉर्म भरवा दूँगा। अब मैने इन्फॉर्मेशन डेस्क वाले कागज़ से एक Tour & Travles वाले के नंबर पे डायल किया, वो तो ऐसे चीखा।" कौन बोल रहे है ?? मेरा नंबर किसने दिया आपको?"
मन तो हुआ कहने का कि भाई तुझे इतनी तकलीफ़ है लोगो के फ़ोन करने से तो यह नंबर क्यों छपवाया। मेरे सफारी के टिकट के रेट्स पूछने पे बोला " मैं अपने अस्सिस्टेंट से बोलता हूँ आपको कॉल करने। उससे पूछ लेना।" इतना हाई फाइ एजेंट तो मुझे आज तक नहीं मिला था।
फिर से एक दूसरे Tour & Travels वाले नंबर पे डायल किया, उसका अलग टशन " आप मेरे ऑफ़िस आ जाओ, वही पे आपका फॉर्म भर लेना और कैन्टर का pick up, drop भी वहीं से हो जायेगा आपका।" मैंने कहा कि आप स्टेशन से ही pick up, drop का करवा दो मुझे आसानी होगी और पैसे भी बचेंगे, तो मना कर दिया। उसके ऑफ़िस का पता पूछने पे बोला " आप ऑटो कर लो उसको फोन दो मैं उसको बता दूँगा।"
थक हार के मैंने उसी एजेंट को कॉल किया जिसने अपना कार्ड दिया था कम से कम यही स्टेशन से ही टिकट हो जाएगा, यहाँ वहां भटकना नहीं पड़ेगा। वो बोला" आप ऊपर रिटायरिंग रूम में जा के 800 रूपये दे दो, थोड़ी देर में आ के मैं बाकी काम करा दूँगा।" ऊपर रिटायरिंग रूम वाला पैसे का कोई receipt देने के लिए राजी नहीं। मुझे गुस्सा आ गया ये क्या नाटक चल रहा है है यहाँ पर। मैं पैसे ले के वापस प्लैटफॉर्म पे आ गयी।
मैने एक और बार कोशिश करने की सोची, उस लिस्ट के आखिरी एजेंट को कॉल किया। थोड़े मोल भाव में वो 700 रूपये में टिकट देने के लिए राजी हुआ लेकिन उसने वापस से उसी एजेंट का नंबर दे दिया जो assistant से बात करने बोला था। पूरी बात फिर से उसी जगह पे आ गई थी। वो भी अपने ऑफ़िस ही आने ही बोला लेकिन अब तक ये पता चल गया था कि प्लैटफॉर्म 1 से 4 पे जाने से 3 km दूरी कम हो जाती है रणथम्भौर की और सारे Tour & Travels का ऑफ़िस उसी तरफ है।
स्टेशन से बाहर निकलने पर सामने ही एक कैंटर दिखी। उससे पूछने पर पता चला कि टिकट तो 550 का ही है ये एजेन्ट महँगा बेच रहे है और जाने पे आराम से मिल जायेगा ..
बस फिर क्या था, टिकट काउंटर पहुंच गई ऑटो कर के। वो ऑटो वाला भी मेरी तरह पहली बार ही जा रहा था, तो भी सही जगह पे ही पहुँचाया।
टिकट काउंटर तो बंद था लेकिन काफी लोग थे। ज्यादातर एजेंट ही लग रहे थे, ढेर सारी पर्चियां लिए हुए। वहां पे एक आंटी ने टोका " तुमने उस एजेंट से टिकट नहीं कराया?"
मैं हैरत में ...
फिर उनसे बात करने पे पता चला कि उन्होंने स्टेशन पे मुझे उस एजेंट से बात करते देखा था। वो तो कल उस एजेन्ट के झांसे में आ गए, सुबह में आ कर उनसे बोला "बहुत भीड़ थी टिकट नहीं मिला। देखिये धक्का मुक्की में मेरा चश्मा भी टूट गया। शाम वाली सफ़ारी में हो जाएगा। " आंटी ने उसे मना कर के खुद ही टिकट लेने का सोचा और यहाँ आ गयी उन्होंने कहा "ladies की अलग लाइन लगेगी 1 बजे से तब तक form भर लो। id proof का फोटो कॉपी है ना।"
Id proof तो था लेकिन इस जंगल में फोटो कॉपी.।
मैंने पूछा " आपने कहाँ से कराया था?"
आंटी " मैं तो स्टेशन से ही करा के लाई थी"
वापस स्टेशन जाने का नाम सुन के तो मेरी रूह कांप गयी।
दूरी तो 3.5 km ही थी। लेकिन सड़क पूरी टूटी हुई जैसे पहली बार नेशनल पार्क बनने के बाद 30-40 साल में दोबारा कभी सरकार ने उस सड़क की सुध नही ली। एक बार ऑटो से आने में ही हड्डियाँ हिल गई वहां पूछने पे पता चला कि एक पेड़ के नीचे स्कूटर पे फोटो कॉपी मशीन रख के फोटो कॉपी हो रहा है। फटाफट से मैंने करवा लिया। वो फोटो कॉपी वाला भी 700 रूपये में ये बोलते हुए टिकट कराने का ऑफर दे रहा था "बेकार परेशान होंगे, आपको मिलेगा भी नहीं।" खैर अब मैं फॉर्म ढूंढने में लग गयी कि मिलता कहाँ से है, क्योंकि काउंटर से तो दे नहीं रहे थे। आखिरकार काउंटर के पिछले दरवाज़े से अंदर घुस गयी।
वहां तो गजब ही नज़ारा था। इतने सारे एजेंट लगे हुए थे टिकट बनवाने में। मेरी तो उम्मीद धूमिल होने लगी टिकट मिलने की। मैंने पर्ची ले ली और बाहर आके, भर के ladies लाइन लगने का उन आंटी के साथ इंतज़ार करने लगी, लेकिन ये बस अफवाह थी। उसी कॉमन लाइन में खड़े हो कर वो फॉर्म तो जमा हो गया लेकिन टिकट का अलग हिसाब था इनका, पहले सबका फॉर्म जमा कर के रख लेते थे फिर बाद में सबका नाम बुला -बुला के देते थे। उसके लिए फिर से लाइन लगना था 1:30 से ज़िन्दगी में इस तरीके का टिकट काउंटर पहली बार देखा। सभी जगह हाथों हाथ मिलता है। अब 1:30 बजे टिकट काउंटर की हालत और बदतर थी। फॉर्म जमा करने वालो की लाइन लगी हुई थी ही साथ में टिकट के लिए लोगो की काउंटर के चारों तरफ काफी भीड़ थी। उसमे तो अगर मेरा नाम बुलाता भी तो भी इतनी भीड़, धक्का-मुक्की में जा के टिकट लेना मुश्किल था। अब तो मेरे बाद लाइन में खड़े लोगो को भी टिकट मिलने लगा लेकिन मेरा नाम ही नहीं आ रहा था। इतनी गर्मी और तीखी धूप से दिमाग और ख़राब हो रहा था।
आंटी और मैंने सोचा काउंटर के अंदर जा के ही बात करनी होगी वरना ऐसे तो खड़े ही रह जायेंगे। टिकट नहीं मिलने वाला। हम दोनों किसी तरह अंदर घुसे, काफी लोग अंदर से ही टिकट बनवा रहे थे। आंटी ने काउंटर वालो से टिकट के लिए पूछा, कोई सुन ही नहीं रहा था। वहां के हेड से भी उनकी बहस हो गयी, उनको भी हमने बाहर आ कर देखने कहा काउंटर पे कितनी ज्यादा भीड़, धक्का मुक्की है और कोई sequencing ही नहीं है, 3 में से किसी भी काउंटर पे अपना नाम बुलाया जा सकता है। वो भी हमे 10 मिनट बाहर जा कर इंतज़ार करने बोले। आंटी उनको धमकाती हुई आ गयी " सर! अगर 10 मिनट में हमारा नाम नहीं आया तो फिर से वापस आएंगे, आपको यही से देना पड़ेगा ठीक 10 - 15 मिनट बाद भी हमारा नाम नहीं आया, वापस हम दोनों काउंटर के अंदर घुसने के लिए गए। काफी लोग लगे थे अंदर जाने के लिये। आंटी तो किसी तरह अंदर चली गयी और काउंटर वाले के सर पे खड़े हो कर टिकट बनवा ली..मुझे जाने ही नहीं दे रहे थे अब तो काफी गुस्सा आ रहा था किसी तरह लड़ झगड़ के घुसने पर हर काउंटर पे झगड़ा हुआ। बचपन में कभी "ऑफ़िस ऑफ़िस" सीरियल देखा था वैसी ही हालत थी। हर काउंटर वाला दूसरे काउंटर पे जाने बोल रहा था। आखिरकार एक काउंटर पे मुझे अपना फॉर्म मिला तो फिर से काउंटर वाला बोल रहा है कि आप बाहर 5 मिनट बाहर खड़े रहिए बस आपका बना के दे रहा हूं। मैं चिल्ला उठी "आप अभी बना के दो, ।5 मिनट बोल -बोल के 2 बजा दिए। मेरे आधे घंटे बाद भी जो आये थे उनको भी मिल चुका है और मेरा फॉर्म भी मुझे ढूंढ के निकलना पड़ा।" सर पे खड़े होने से उसने तुरंत बना तो दिया लेकिन गाड़ी का नंबर उसने पेन से काट कर 2203 लिख दिया।
अब बाहर पूरी पार्किंग छान मारी .. उस नंबर की गाड़ी ही नहीं मिल रही। सारी जिप्सी, कैन्टर गाड़ी एक - एक कर के जा रही थी ।2:15 हो गया था टिकट के हिसाब से रिपोर्टिंग टाइम हो चुका था, अब समझ मे नहीं आ रहा था क्या करना है।
वापस टिकट काउंटर का ही रुख करना सही लगा। वहां उनके हेड से फिर से शिकायत की, उन्होंने एक काउंटर वाले से चेक करने कहा। पता चला 2103 की जगह 2203 लिख दिया था, उसने फिर 2203 काट कर दूसरी गाड़ी का नंबर लिख दिया 2194। मुझे याद आ रहा था कि 2194 तो मेरे सामने से ही गयी थी लेकिन वो माना नहीं, एक ड्राइवर को मेरा टिकट पकड़ा दिया कि मैडम को दिखा दो गाड़ी। बाहर निकल के जब वो ड्राइवर गाड़ी नंबर देखा तो चिल्लाया "ये तो गयी, आप इसकी जगह दूसरी गाड़ी लिखवा मुझे तो समझ नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है, मेरी किस्मत इतनी वाहियात थी या यह का system!!
मैं फिर से काउंटर का दरवाज़ा पिट रही थी कि कोई गाड़ी का नंबर तो बदल दो। वहां के हेड ने देखा। पूछा " मैडम आप अभी तक यही पर हो "मैंने फिर से कहानी सुनाई उनको। वहां पे फिर लोगो ने 2194 वाले ड्राइवर से बात कर के मुझे एडजस्ट करने कहा। वो अभी तक गेट के बहार जाम में ही फँसा था। वह जाने पर वो अलग नाटक करने लगा कि "आपको कैसे इस गाड़ी में डाल दिया?? इसमें पहले से ही 24 लोग है, 22 की ही सीट रहती है, इतनी मुश्किल से वो बैठाने के लिए माना। ऐसा लग रहा था जैसे मुफ्त में सफारी घुमा रहे है, जो हर जगह हर चीज़ में इतना नाटक हो रहा है।
शहर से बाकी टूरिस्ट को लेने के बाद गाड़ी अब आखिरकार रणथम्भोर नेशनल पार्क में थी। मेरे बगल की सीट पे एक लड़की बैठी थी जो पांचवी बार आयी थी यहां। गाइड से ज्यादा ज्ञानी थी। पूरे रस्ते बताती जा रही थी कहाँ पर क्या है। गाइड से तो बाघों का हिसाब ऐसे मांग रही थी जैसे इस जंगल की IFS ऑफिसर हो। जंगल तो काफी घना था। नदी, नालो, पहाड़ों के साथ काफी मनोरम दृश्य लग रहा था। नेतरहाट (मैने जहाँ आधी ज़िन्दगी गुजारी है) की याद आ गयी।
जंगल की पगडंडियों पे खुली गाड़ी में घूमना भी एक नया अनुभव था, क्योंकि नेतरहाट में तो पूरे जंगल में पैदल भटकते थे।
बाघ तो दिखे नहीं जिसके लिए यह पार्क मशहूर है.. बस हिरण, सांभर, मोर, बारहसिंघा ही मिले।
इसलिए थोड़ी तो मायूसी थी। लेकिन मेरे बगल सीट वाली जो 5 बार आ चुकी थी और आज तक उसे बाघ नहीं दिखे। ये सोच कर थोड़ी मायूसी कम करते हुए मैं वापस जयपुर लौट आयी। बस इतनी सी थी रणथम्भौर की कहानी...
