पुन्या

पुन्या

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पुन्या जब छोटी थी,तब से अम्मा की लाडली थी। बड़े ताऊ जी अक्सर कहते" पुन्या तू तो पूरी अम्मा जैसी है, वही गोल सी नाक, मोटी भैंस जैसी आँखें, कच्चा-सा रंग और मध्यम सा शरीर"

दादी से उसकी खूब पटती, कहानियाँ सुनाने का चस्का दादी को, सुनने का उसको। विभाजन के समय की कहानियां सुनकर पुन्या भावुक हो जाती।" किसतरह भेड़-बकरियों की तरह आदमियों को काट डाला गया, किस तरह एक दुधमुँहा मृत माँ के स्तन में दूध ना पाकर विलख रहा था, सुनकर पुन्या को बहुत रोष होता।

अम्मा लड़ते मुए पुरुष हैं,औरत को मोहरा क्यों बनाते हैं, आपस में फैसला क्यों नहीं करते मुए।''

अम्मा क्या जबाव देती भला, आसमान का मुँह ताकना शुरू कर देती" पता नहीं क्यों पुन्या, यह बात मुझे भी आज तक समझ नहीं आई, बस बज़ुर्गो से सुना था कि औरत और धरती को बहुत कुछ सहन करना पड़ता है।

"रहने दे अम्मा, तू पुराने ज़माने की है, आजकल तो आर्मी में भी लड़कियां हैं, गाड़ियां चलाती हैं, जहाज़ उड़ाती हैं, वो ज़माने बीत गये।''

फिर बेखास्ता हसँती हुए दोहराती "मैं ज़मीन बनी तो भूकम्प वाली बनूंगी।''

दादी की सौ नसीहतों के वाबजूद  अठारह साल की गरीब कुम्हार बिटिया एक जिमींदार के बेटे संग गृहस्थी बसाने चली गई थी।

अम्मा बहुत रोई थी "कितनी समझदार थी मेरी बच्ची, पता नहीं किसने काला जादू करके बरगला दिया, हाय मेरी बच्ची भाग गई।''

पुन्या ने वो सामाजिक घेर तोड़ने की कोशिश की थी जो सदियों मेहनत से समाज ने मूल्य के नाम पर औरत के गिर्द बनाया है। पर पुन्या का शरीर, मन, आत्मा सब बागी थे।

ससुराल पक्ष ने उसे और राजीव को अपनाने से साफ़ मना कर दिया।

"अछूत बहु हमारे किस काम की बेटा?'' इसके हाथ का पानी भी हमारे रिश्तेदार नहीं पिएगें, तेरी औरत तू जाने, तेरा काम जाने"

किराये के घर में उन्होंने गृहस्थी शुरु की। बाईस की वय का नासमझ नौजवान था राजीव, अभी रोजी-रोटी कमाने का हुनर नहीं जानता था। सिर्फ पांच हज़ार में गृहस्थी नहीं बसती, पर नये-नये प्यार में डूबे प्रेमी कहाँ समझ पाये थे।

पुन्या का मन बहुत मजबूत था उसने दो ईंटों के चूल्हे पर आग जलाई और सारी परेशानी उसमें फूंक डालीं।

गांव की औरतों से सिलाई मशीन उधारी लेकर वो सिलाई का काम करने लगी। दिन रात सूई धागे में उलझी रहती, मन ही मन अपराध बोध से ग्रस्त की राजीव की सारी मुसीबतों की जड़ वो ही है। भला सिलाई-कढ़ाई से राजीव के खर्चे पूरे हो सकते थे।

उस बेचारे को उम्मीद थी कि वो माँ बाप की इकलौती संतान है, माँ उसके बिना रह नहीं सकेगी और जल्दी उन्हें स्वीकार कर घर बुलाया जायेगा पर जब उसके मन मुताबिक़ कुछ ना हुआ तो वो परेशान हो गया।

पुन्या गरीबी को जीते आई थी, क्या हुआ उसे नये कपड़़े जूते, गहने नहीं मिले, राजीव उसके पास था, वो खुश थी। पर राजीव का मन बुझ गया था, पुन्या का काम-काज के बोझ से मुर्झाया चेहरा उसे बहुत मायूस कर देता, इस लडकी के लिए उसने कितना बलिदान कर दिया, यह सोचकर वो पुन्या पर हर बात में खीझता, पुन्या और पैसे कमाने के लिए और मेहनत करने लगती, वह अपनी उम्र से कहीं जल्दी बड़ी हो गई। मेहनत से क्या नहीं हो सकता, हालात बदलने की जद्दोजहद में उलझी थी कि  विवाह के छह एक महीने बाद वो पेट से हो गई। तबीयत बिगडने लगी, काम ठप हो गया, भूखों मरने की नौबत आने लगी तो सरकारी अस्पताल में उसे भर्ती करवा कर राजीव ने पुन्या के माता-पिता को खबर कर दी।

पुन्या की दादी से ना रहा गया वो अस्पताल से उसे घर ले गई। राजीव को उसके परिवार ने वापस बुला लिया कि ससुराल में जमाई का टिकना कोई अच्छी बात नहीं।

धीरे-धीरे राजीव की खबर मिलना बंद हो गई, लोग कहते वो विदेश चला गया। पुन्या के पास विवाह का कोई प्रमाण भी नहीं था। राजीव के घरवाले उसे रखने से साफ़ मुकर गये "हमारा बेटा हमारे कहने से बाहर है, और घर से भागी लड़की का क्या भरोसा, किसका पाप किसके मत्थे मढ दे।

एक बच्चे के साथ उन्नीस साल की पुन्या सच के कठोर धरातल पर खड़ी थी। पुत्र अनमोल को सीने से चिपटाये मन को तसल्ली देती शायद यही मेरे जीने का सहारा है। बड़े घर के बेटे के खिलाफ उनका साथ किसी ने नहीं दिया। पुन्या आसमां की तरफ देखकर इंसाफ़ की उम्मीद करती पर शायद आसमां ने भी उससे दामन छुडा लिया था। "वो देखो घर से भाग कर विवाह करने चली थी, गोदी में दहेज भी ले आई।''  उसके बेटे की सूरत राजीव जैसी थी पर लोगों को तो गिद्धों की तरह कोई जिंदा लाश दिखनी चाहिए वो उसे चील कौवों की तरह चोंच मारकर नोचने लगे। उसके बच्चे का नाक किसी एक अवारा तो आँखों, बालों का रंग दूसरे नकारा के साथ मिलाने लगे।

उसकी बुआ के बेटी के कोई औलाद ना थी, सारे ईलाज, टोनों टोटकों का कोई असर ना हुआ था, अनमोल को पुन्या की झोली से उठाकर सोनिया की गोद में डाल दिया गया, पुन्या एक बार दायरा तोड़ चुकी थी, राजीव के घात ने उसे यूँ तोड़ दिया था कि चुप रह गई, नियति को समर्पित हो गई।

पुन्या खुद से सवाल करती, वो दोषी थी, उसे सज़ा मिली पर दूसरे दोषी को सज़ा क्यों नहीं मिली, यह तो इंसाफ नहीं। उसके घरवालों ने सोनिया से अनमोल के बदले दो लाख ले लिए थे, दो लाख और लेकर उसका विवाह एक बूढे से कर दिया गया।

अम्मा बहुत रोई, चाँदी का एक सिक्का उसके हाथ पर रखकर बोली "पुतर हम औरतों के हाथ में खुशी की लकीर नहीं होती, यह हमें खुद बनानी पड़ती है, जो मिल जाये, उसमें संतुष्ट रहो बस"

पुन्या क नये घर में 22 साल की एक बेटी और २० साल का बेटा था। बेटी ने सौतेली को घूरा था "बहुत सुंदर है साली नई माँ तो, तभी हमारे बूढे बापू का दिमाग खराब हो गया।'' बेटा भी हँसा "इसको देखकर किसी का भी दिमाग खराब हो सकता है।''

पति शिवप्रसाद अच्छा आदमी था, पर पुन्या को उसके बेटे अशोक से बहुत डर लगता। वो बेवजह उसे घूरता, हँसता, ईशारें करता।

काम में मदद के बहाने उसे छू लेता। बेटी उसके हर काम में नुक्ताचीनी करती। पिता को भी समझाती "काबू में रखियेगा, वरना आपके सरपर बैठकर हम सब के खून पियेगी।

सास भी अपना कर्तव्य पूरा करती "लगाम हाथ में रख, जवान घोड़ी और जवान नार चाबुक की मार बिना काबू नहीं आती, खाने को कम और काम में निकालो दम, इनको साधने का यही तरीका है।''

पुन्या दिन रात खेतों, पशुओ, घर के काम में उलझी रहती।

एक दिन घर में अकेली थी, रोटी माँगने अशोक रसोई में आया, उसे आँख मार कर कहने लगा "माँ रे माँ, मुझे सारा पता है, तू मायके में क्या गुल खिलाती रही है, यहाँ बड़ी सती सावित्री बनती हो.

चुप चाप पुन्या रसोई से बाहर आने लगी तो अशोक ने डिठाई से उसका हाथ पकड लिया।

पुन्या ने तमाचा जड़ा "बेटा है तू, रिश्ते में मेरा"

अशोक तिलमिला उठा "और वो जो तू सोनिया को देकर आई वो तेरा......।

सास भी खेत से भागी आई "तू सौतेली मेरे बच्चों से भेदभाव कर रही, तू चरित्रहीन औरत।''

पुन्या चुपचाप सुनती रही, धीरे-धीरे स्वयं में घुलने लगी, हड्डियों का ढांचा बनने लगी। परिवार के साथ के कारण अशोक का हौंसला इतना बढ गया कि पुन्या मात्र उसका शिकार बनकर रह गई। उसका कोई हमदर्द ना था, कोई ना था जिससे बात कह पाती। उसका रंग काला पड़ने लगा, आँखों के नीचे गड्डे पड़ गये, कपड़े उसके शरीर पर यूँ लगते जैसे हैंगर पर टंगे  हों।

उस दिन रजनी ने पुन्या को देखा, अशोक को देखा। वो समझ गई कि कौन शिकारी कौन आहार। पर भाई अपना था, खून का रिश्ता इंसानियत के रिश्ते पर भारी पड़ा।

"गंदी औरत" डायन भी सात घर छोडती है।'' सबने मिलकर घर से निकाल दिया।

मार खाकर, ताने सुनकर लोगों से किराया मांगकर पुन्या मायके पहुँची। उसे देखकर दरवाज़े बंद कर लिए गए "डोली में जातीं हैं बेटियां,अर्थी में आती हैं।''

रात गहरी हो गई, भूखी प्यासी पुन्या सड़क किनारे विमूढ़-सी चलती रही। एक ट्रक ड्राइवर ने उसे ट्रक में उठा कर रख लिया। उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया। वो भूल गई स्वयं को, सबको।

ना रुप, ना रंग, ना भाव, वो सबसे मुक्त हो गई।

कितने लोग उसके तन की लाश से खेल गये। उसकी स्मृतियां उसके दुख-सुख सब खो गये। ना पीड़ा में आँसू ना खुशी में हँसी।

सोचना बंद कर दिया। कोई खिलाता तो खा लेती, पीने को पानी दिया पी लेती।

कपड़े दिये तो बदल लिए, हाथ पेर के नाखून बेढब बढ़ गये।बाल जटा की तरह जुड़ गये और पेट फिर उसी तरह फैलने लगा जैसे अनमोल के जन्म के समय था।

उल्टियाँ मार-मार कर वो निढाल होने लगी। ड्राइवर उससे दूर हटने लगे। पर उन सब में एक कुलतार नाम का पचास साल का भला सा ड्राइवर भी था।

वो तरस खाकर उसे अपने घर ले आया।

घर क्या खुली हवेली थी, वहां अकेला रहता था वो, इतनी बड़ी दुनिया में अकेला होना भी तो सज़ा ही है।

ड्राइवरी उसने छोड़ दी, ड्राइवरी करता भी शौक में था, समय बिताने को अकेले आदमी को कुछ करते रहना चाहिए, घर अकेले आदमी को खाने दौडता है। पुन्या को साथ ले आया तो उसे घर में ही काम मिल गया। उसे नहलाना, कपड़े साफ़ करना, रोटी पानी खिलाना, वो जानता था, पुन्या उसकी कोई बात नही समझती फिर भी ढेरों बातें करता। वो सोचता शायद पगली गूंगी है, पाँच साल से उसने डेरे पर उसे चुप ही देखा था।

एक दिन उसे खाना खिलाकर मुँह धुला रहा था कि पुन्या चिल्लाई थी "रोटी कैले रोटी"

कुलतार को गाँव में सब कैला ही बुलाते थे। वो हैरान हुआ, खुश हुआ, न उसका चेहरा देख कर समझ गया कि पगली प्रसव पीड़ा को भूख से  ही जोड़ कर देख रही है, वो भाग कर दाई को बुला लाया। पुन्या को फिर पुत्र की प्राप्ति हुई थी।

पुन्या स्वयं ही उस बच्चे को अनमोल बुलाने लगी। कुलतार दिन रात माँ बेटे की सेवा करने लगा, स्वर्ग से पुन्या की चेतना धरती पर लौटने लगी, दूध पिलाते वो बड़े स्नेह से पुत्र को देखती। पाँच साल के पुत्र को स्कूल दाखिल करवाने कुलतार जाने लगा। पुन्या घर के काम में उसका हाथ बँटाने लगी थी।अनायास ही किसी डर के वशीभूत उसने पूछा "स्कूल में बच्चे के पिता का नाम पूछेंगे।''

"नाम तो पंचायत में भी लिखवाया है मैंने" कुलतार ने ठिठोली की।

"क्या नाम लिखा दिया" अनजाने भय से पुन्या फिर सिकुड़ गई।

"पिता दा नां कुलतार सिंह ते माँ दा ना कुलजीत कौर" कहकर कुलतार ने नन्हे सरदार को कंधे पर उठा लिया था।

"कुलतार आप मैं समझ गई, कुलजीत कौन?" आँखों के आसूँ दुप्पटे से पोंछते हुए पूछा। माँ ओर पिता को सवाल- जबाब में उलझा देखकर अनमोल गली के बच्चों के साथ कंचे खेलने खिसक लिया।

"तू झल्ली दी झल्ली रही" टेढ़े मेढे दाँतो वाला सरदार शायद पहली बार खुलकर हँसा। "तू और कौन, तब तू नाम बताने लायक नहीं सी, इस खातर मैं तेरा ना कुलजीत लिखा दित्ता।''

"पर आप जानते हो कि अनमोल आपका बेटा नहीं" पुन्या का मन जार-जार रो उठा "फिर क्यों?''

'चुप हो जा जीते, मैं सब कुछ तेरे वास्ते नहीं आपने वास्ते कीता ऐ, तैनू पता मेरा ब्याह क्यों नहीं होया, क्योंकि मेरे कोल किसे पिओ दा नां नहीं, क्योंकि मैं बँटवारे दी पैदावार हाँ, यह हवेली मेरे नाना दी ए, मेरे नाल उहना कदी गल्ल नहीं कित्ती, माँ, माँ मेरी कहदें, खूह च छाल मार के मर गई सी, पागलपन विच"

बीते वक्त की सब बातें कुलतार की आँखों में आँसू बनकर तैरने लगी। पुन्या ने पुरुष का ऐसा भावुक रूप कभी नहीं देखा था। कुलतार की आँखों में अपनी बहती हुई तस्वीर जब उसने देखी, तो वो उसे बिलकुल अनमोल की तरह छोटा बच्चा लगने लगा। पुन्या ने उसके चेहरे पर लुढ़कते आँसू पोंछ दिये। उस समय कुलतार का चेहरा छोटे बच्चे-सा मासूम बन गया। पुन्या ने महसूस किया कि उसके स्पर्श का कितना महत्व था। किसी आत्मतृप्ति ओर खालीपन से बनी आवाज़ में धीरे-धीरे स्वर में गहरी सी सांस लेकर वो स्वयं में बुदबुदाया "मेरे सिवा इस हवेली दा कोई वारिस नहीं सी, जिंदा हाँ मैं भूतणा कल्ला जिंदा हाँ! उम्र दे पँजाह साल मैं किवें बहाने नाल बिताए" तैनू पता, हरामी कह के किसे मैनूं धीह ना ब्याही। जनानी नू मुल्ल वपार समझन वालेयाँ नाल मैनू दिली नफरत ए, इस करके मैं हमेशा जनानी दी खरीद फरोख्त तो बचदा रिहा। ते प्यार दे नां ते धोखे फरेब जो मेरी किस्मत विच्च सी खांदा रिहा, शायद जे तू अते अनमोल ना मिलदे, तां मैं भी पागल ही हो जांदा।

पुन्या से अपने मन की कहकर कुलतार स्वयं को फूल सा हल्का महसूस करने लगा। पर जल्द ही ठुकराए जाने का डर उसपर हावी हो गया। उसका मन डूबने लगा, कितनी शान से पांच साल वो अनमोल को अपने कंधे पर उठाकर घूमता रहा "मेरा शेर" कहकर। पुन्या को मेरी जट्टी, मेरी कुलजीत वो घर से बाहर साथियों में उसे घरवाली ही बताया करता था। अपने आभासी संसार में वो इतना खुश था कि कभी सोच ही ना पाया कि बचपन में रेत में बनाये  घरौंदे की तरह यथार्थ की हल्की सी चपत इसे ध्वस्त कर सकती है।

अपने सीने में घुट रही साँस के बावजूद उसने महसूस किया कि उसकी धड़कन असमान्य रूप से बढ़ गई है। पुन्या उसके बेनूर हुए चेहरे को देखती रह गई। कुछ भी कहने में वो स्वयं को असमर्थ पाने लगी। उसकी चुप्प से डरा कुलतार एक साँस में अपने शरीर की सारी ताकत बटोर कर कह गया "चंगा बुरा तेरे साहमणे हाँ, तू होश च हैं, फैसला कर सकदी एं, इस घर च रह, मेरी हो के रह जा ना, तेरी इच्छा।'' कुलतार की आवाज़ काँप गई थी, भारीपन जुबान पर आ गया था।

पुन्या उस पल में कुलजीत हो गई, उसने अपने आँसू बहने दिये, उसने कुलतार के आँसू बहने दिये, चुपचाप अपनी बाहों में रोते हुए उस सरदार को भर लिया।

"तेरा नां की ऐ" कुछ संयत होकर कुलतार ने पूछा। अनियंत्रित उखड़ी साँस में पुन्या सब सुना गई। उसके जीवन का हर कड़वा अनुभव। कुलतार चुप सुनता रहा, बिना उससे नज़र मिलाये, वह पुन्या की आँखों में आत्मग्लानि नहीं देखना चाहता था। और यह भी चाहता था कि वो सब कहकर बोझमुक्त भी हो जाये। छोटे बच्चे की तरह वह उसकी पीठ सहलाकर साथ होना आश्वासित करता रहा। बात खत्म कर पुन्या हिचकियों में डूब गई।

"पुन्या ही हैं तू, पता पाप पुन्न सब वक्त हालात दी देन है, तेरा मन शीशे वरगा साफ है। पुन्या दी रात चन्न दे दाग ज्यादा दिसदे हन।''

दहाड़े मारकर रोने की आवाज़ सुनकर घबराया अनमोल अंदर आया तो डर गया, वो कभी गले मिलकर रोते थे, कभी हँसते थे।


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