पर्दा वाला सिनेमा

पर्दा वाला सिनेमा

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कल शाम करीब ६:३० बजे होंगे, मैं अकेले बैठा हुआ पुरानी यादों में खोया हुआ था। यादों के सागर में खोए हुए चन्द कतरा याद आ गया।


बात तब की है जब मैं ४ थी कक्षा में पढ़ता था, हमारे घर से तकरीबन १ किमी की दूरी पर था, हमारा विद्यालय। ६-७ गाँव के लड़के-लड़कियाँ पढ़ने आते थे, उस विद्यालय में, क्योंकि उस एरिया में वही एक ऐसा विद्यालय था, जिसमें ८ वीं तक कक्षाएँ थी। और भी प्राइमरी विद्यालय थे, जिनमें ५ वीं तक कक्षाएँ थी।

मार्च का महीना था, शादियों का सीजन चल रहा था। मैं विद्यालय गया तो एक लड़के ने बताया के उसके गाँव में आज बारात आ रही है। जिसमें पर्दा वाला सिनेमा (प्रोजेक्टर) चलेगा, जी हाँ वो लड़का किसी और गाँव से था.. वो क्या है न के जब भी मेरे या उसके गाँव में कोई प्रोग्राम-बारात या किसी प्रकार का उत्सव होता जिसमें (VCP या VCR के द्वारा टीवी पर) फिल्में दिखाई जाती तो मैं उसे या वो मुझे सूचित कर देता।

जब उसने उस दिन बताया के पर्दा वाला सिनेमा चलेगा, तो मैं बहुत ही खुश हुआ क्योंकि पर्दे वाले सिनेमा में देखने से ऐसा लगता, जैसे सिनेमा हॉल में बैठ के फिल्म देख रहे हो.....सब कुछ बड़ा-बड़ा सा दिखता। 

जैसे ही उसने मुझे बताया मैने अपने ३ दोस्तों को जो मेरे मुहल्ले के ही थे, मैने उनको बताया के आज फलना गाँव में बारात आ रही है। जिसमें पर्दा वाला सिनेमा चलेगा, बहुत खुश हुए वो भी ये बात सुन के, उस दिन सारा दिन पढ़ाई में मन नहीं लगा। बस ये मना रहे थे, के जल्दी शाम हो जाए ताकि पर्दा वाला सिनेमा देखें। जैसे -तैसे हमने पढ़ाई की जैसे ही छुट्टी हुई, फिर क्या था, हम चार (मैं और मेरे ३ दोस्त ) खुशी-खुशी घर को आ रहे थे। सच में उस दिन बहुत खुश थे, हम अब घर पहुचने वाले थे, तभी मुझे याद आया के बाबूजी उन दिनों घर आए हुए थे, छुट्टी पे। 

फिर मेरी सारी खुशी जाती रही, मैं अभी यही सोच रहा था, के मेरे १ दोस्त ने कहा के शाम को जल्दी-जल्दी खाना खा लेना, और उसी जगह पे हम चारों मिलेंगे जहाँ हमेशा मिलते हैं ।

गाँव से बाहर १ बहुत बड़ा (पाकड़) का पेड़ था, जो बहुत पुराना था, तकरीबन १०० साल पुराना, वहीं हम सब खाना खाने के बाद मिलते थे, अगर कहीं जाना होता तो।

उस दिन भी वहीं मिलने के लिए वो कह रहा था। यार मैं नहीं आ पाउँगा, वो न बाबूजी घर आये हुए हैं। मैने उन लोगों से कहा, सब मेरी तरफ देखने लगे और कहने लगे के फिर हम भी नहीं जायेंगे।

फिर उनमें से १ ने कहा तो क्या हुआ, हम किसी को बताएँगे ही नहीं, शाम होते ही खाना खाने के बाद निकल जाएँगे, फिर कल की कल सोचेंगे, क्या हुआ अगर मार भी पड़ी तो फिल्म तो देखने को मिलेगा, वो भी पर्दे वाला सिनेमा पर।

जैसे ही उसने पर्दे वाला सिनेमा का नाम लिया मेरा हौसला भी बढ़ गया। फिर क्या था शाम को खाना खाने के बाद हम सभी वहीं मिले, उस पेड़ के पास, फिर वहाँ से चल दिए अपने मिशन (पर्दा वाला सिनेमा) देखने। जब हम वहाँ पहुचे तो अभी सेटिंग हो रही थी, बहुत सारे लोग बैठे हुए इंतज़ार कर रहे थे, पर्दा वाला सिनेमा चालू होने का। हम चारों भी सब से आगे बैठ गये। ताकि कोई बड़ा आदमी हमारे आगे न बैठे जिससे हमें देखने में दिक्कत हो...


फिल्म स्टार्ट हुआ, बड़े-बड़े अक्षरों में नाम लिख रहा था, "जुर्माना" जो की मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म है। बड़े खुश हुए हम, क्योंकि मिथुन चक्रवर्ती की फिल्में हमें बहुत अच्छी लगती, उनकी फिल्मों में मार-धाड़ (एक्सन) ज़्यादा होता है...

अभी फिल्म आधी भी न चली होगी, के "बाबूजी" पहुँच गये डंडा ले के, रास्ते में किसी खेत से अरहर का डंडा मिल गया होगा।

पहुँच के चारों-तरफ देखने लगे, हम तो फिल्म देखने में मशगूल थे। हमने ध्यान नहीं दिया उनपे, तभी उनकी नज़र पड़ी मुझपे और फिर क्या था। मेरे पास आये, और हाथ पकड़ के बाहर लेकर आये। मैं तो हताश सा हो गया, के अब करूँ क्या, डर से कांप सा रहा था। फिर न पूछो दोस्तों जो मेरी धुलाई वहाँ से शुरू हुई, के घर के नज़दीक आके ख़तम हुई। रोने भी नहीं दिया जा रहा था मुझे, बड़ी जम के पिटाई हुई मेरी घर आने के बाद भी वो तो माँ ने बचा लिया। नहीं तो और भी होती...

सुबह जब दोस्तों ने बताया के फिल्म कितनी मस्त थी, और कितना मज़ा आया उन्हे वो फिल्म देख के। पूरे रास्ते उसी फिल्म की बातें करते विद्यालय जा रहे थे, ये भी न पूछा मुझसे के रात को कितनी पिटाई हुई तेरी एक शब्द तक नहीं पूछा किसी ने, बड़ा दुख हुआ मुझे "बाबूजी" के मार से नहीं, फिल्म अधूरी रह गई, इसलिए

क्या वक़्त था वो बचपन का, ना कोई चिंता ना कोई दर्द.....बस हर वक़्त मस्ती में जिए जाओ

काश वो वक़्त,वो बचपन और वो अपने दोबारा फिर से लौट आते, "काश" 

"बाबूजी" आपकी बहुत याद आती है...



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