नए सवेरे से पहले की शाम

नए सवेरे से पहले की शाम

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पिछले आठ महीनों से प्रियंका नाथ की बगल वाली मेज़ पे अपना समान छोड़, दूसरी टेबल पर जा बैठी थी। लटकती हुई प्रियांका की हंसमुख तस्वीर देख नाथ अतीत के सुनहरे लम्हो में कुछ पल का सफर तय कर वापस लौट आता।


सुबह जब वो आँफिस के लिए निकला तो माँ ने फोन कर अकस्माक ही पूछ लिया- "क्या प्रियंका का सामान अब भी तेरी बाज़ू वाली टेबल पर विराजमान है।" माँ को प्रियंका का ज़िक्र किए तीन महीने हो गए थे। संदेह रहित उसने उत्तर दिया "हाँ! अभी मैं आँफिस जा रहा हूं, आप शाम को फोन करना।" चार पांच घंटे वो काम में इतना व्यस्त था की बाज़ू की ओर देखने की फ़ुरसत ही न मिली। शाम को जब अंगड़ाई लेने मुड़ा तो पाया की सारा सामान ग़ायब। सभी कुछ नई टेबल पर पहुंच चुका था। आखिरी निशानी थी, आज उससे भी मुक्त हो चला। थोड़ा सा निराश, और थोड़ी से राहत पा नाथ टहलने

निकल गया। बाहर अचानक ही मुलाकात हो गयी अपने सबसे क़रीबी मित्र से। एक साल हो चुके थे उन्हें मिले। पूछने पर मालूम हुआ कि घर में तंगी के चलते नाथ के मित्र को वापस नौकरी करने आना पड़ा।

वास्तविकता से परे लगने वाले इस वाकये पे विचार कर, नाथ अपने पर ही मुस्कुराने लगता है- 'ऊपर वाले कि ये कैसी लीला, प्रेमिका के बिछड़ते ही दोस्त दस्तक दे बैठा। इसे क्या नाम दूँ? संयोग या माँ की छठी इन्द्रिय।'


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