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MADHU MITA

Others

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MADHU MITA

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मेरा चुनाव

मेरा चुनाव

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"अरे कोई जीते कोई हारे उससे हमको क्या लेना देना भाई? अभी यह सोचो आज कोन हाथ पकड़ा है अपना?" 

कहते हुए अपने हाथों में पकड़े हुए सो रुपए के नॉट को दिखाया रामु ने।और उसके बातें सुनकर वहां बैठे बाकी भाई बंधु भी हंसने लगे और चाय के चुस्की लेने लगे।रामु के चाय उस ईलाके के सबसे नामदार दुकानों में से एक थी।रामु अपने हाथों से छोटे छोटे मटके वाले कप में चाय भरके लोगोंको पिलाता था।उसके इस अनोखे प्रयास के वजह से बहत लोग चाय पीने के लिए आते थे। बस्ती के लोग को छोर सहर के बाकी लोग भी मटके में चाय पीने के तमन्ना लिए रामु के दुकान को ही चुन लेते थे।दुकान के बाहर पड़ा हुआ वो पुरानी मेज़ कभी ख़ाली ही नहीं रहता था। रामु को चाय बनाने में मदद करने उसकी बेटी चंदा भी सुबह सुबह उठ कर दुकान पे बैठ जाती थी। रामु मटका मंगवाने के लिए या फिर ग्राहकों को चाय देने के लिए अगर व्यस्त रहता था तो वो चांद ही थी जो अपने चाय बनाने के गति को आगे बढ़ाती थी।


चंदा जबसे होश संभाली तब से उसने अपनी मां को नहीं देखा था।रामु ही उसे मां बाप दोनो का प्यार देके बड़ा करता था।बचपन में थोड़ी बहत पढ़ाई की थी चंदा ने।उतना काफी था हिसाब किताब के लिए।दिन अच्छे से ही गुजर रहा था दोनो की।


अक्सर चाय के दुकानों पे आनेवाले लोग बहत बातों पर चर्चा करते थे।खास कर जब चुनाव का मौसम आया तब तो रामु को दो और मेज़ मंगवानी पड़ी।इतने लोग आने लगे दुकान पर।और चंदा भी सुबह से लेकर ग्यारह बजे तक और फिर शाम के चार बजे से लेकर रात के दस बजे तक दुकान पर ही बैठी रहती थी।


"अरे भाई इस बार का चुनाव बड़े टक्कर वाला होगा देख लेना…"चौधरी बाबू बोले।


"बिलकुल सही।कबूतर पार्टी और टेबल पार्टी में बड़ा टक्कर होगा…"श्याम बाबू बोले।


"काहे श्याम बाबू…पैंसिल पार्टी और गिलास पार्टी ने भी अपने बड़े बड़े तीरंदाज उतारें हैं मैदान में…"कहे गोलक बाबू।


"कोई भी पार्टी क्यूं ना हो…ईस बार सच्ची में कांटों की टक्कर होगा लागे है भाई…"हरिया काका बोले।


सब अपने अपने सोच के हिसाब से उस इलाके के उम्मीदवारों के बारे में बातें कर रहे थे। बातों का लंबा सिलसिला चालू था।और इसमें रामु के चाय भी खत्म हो जा रहे थे कुछ देर के विराम के बाद। तभी वहां उस इलाके के जानेमाने बांके भाई अपनी टोली के साथ आकर पहुंच गए। मेज़ पर बैठ अपने पार्टी के गुणगान करते हुए लोगों को समझाने लगे उनके पार्टी की जीत के साथ जनता को क्या क्या फायदा होगा। 


"रामु…यार आज की चाय हमारे और से है भाई।किसी और से एक भी पैसा न लेना…समझा…?"

कहे बांके भाई और सब खुशी से हसने लगे।लंबी बात चली।पार्टी के और भी सदस्य आके बैठे वहां।उनके साथ गांव के और लोग भी।वैसे तो भरतपुर गांव सहर जैसा बड़ा नही था।पर किसी सहर से कम आबादी भी नही थी उनके गांव में। बांके भाई के साथ चाय की चुस्की और भी मजेदार लग रही थी।जाते जाते बांके भाई पूछे कितने पैसे हुए आज चाय पार्टी के…?रामु चंदा के और देखने लगा।हिसाब तो वही रखती थी। उसने हिसाब लगाए और पूरे डेढसो रुपए बताए। बांके भाई तुरंत अपने जेब से पैसे निकाल के दे दिए।शाम के वक्त उनके चले जाने के बाद और एक पार्टी के लोग भी वहां आकर अपनी मंडली बैठा दिए। रामु बहत खुस था। चुनाव का नतीजा जो भी हो पर आमदनी अच्छी हो जाए इस से अच्छा और क्या हो सकता है…?


"मैं मटका लाने दूसरे गांव जा रहा हूं बिटिया…खयाल रखना अपना और दुकान का…"बोला रामु


"हां बाबा…तू बिलकुल चिंता न कर और आराम से जा।पहली बार थोड़े ही जा रहा है?" चंदा हंस के बोली।


रामु जानता था।चंदा बड़ी समझदार है।पर बाप का दिल ऐसे भी तो नहीं मानता न…!!मटका लाने के लिए उसको ऐसे जाना पड़ता था पास के गांव में।अब सिलसिला शुरू जो कर दिया था मटके चाय की…बंद नहीं की जा सकती न…!!


अकेले ही दुकान बढ़ाने लगी चंदा।भीड़ बहत नहीं थी।फिर भी चाय बनाने और लोगों को लेके देने का काम अकेले संभालना मुस्किल था। इसलिए वो चाय बनाके आवाज दे देती थी। फिर लोग खुद आगे आके अपना अपना मटका उठाके ले जाते थे। कोन आता कोन जाता उसका खयाल नहीं था चंदा को।कितने मटके चाय पिलाई उसने और कितने पैसे मिले बस उस पर ही उसका खयाल था।


"सूरजवा…कब आया रे तू सहर से …?"कोई पूछ रहे थे वहां…


और जवाब आया…"सुबह के बस से आया काका…कुछ देर पहले ही…"


सूरज…!!यह नाम शूनते हो चंदा के दिल में कसक सी हुई।आंख उठाके एक अजीब सी खींचाव के साथ वो ऊपर देखने लगी…!!सामने खड़े वो नौजवान चंदा को ही देख रहे थे और मुस्कुरा रहे थे…!! चंदा के दिल में जैसे कोई भूचाल सा आ गया था।चाय देते देते मटका भर गया और कुछ चाय नीचे चट्टान पे गिर गई। छीटें पड़ने पे होश आया उसको।खुद को संभालते हुए वो चाय बढ़ाने लगी।पता नही कैसे और क्यों पर चंदा के हाथ कांप रहे थे इस बार…!!सूरज सामने आकर चाय ले गया और खाली एक नज़र देख गया चंदा के आंखों में…!! चंदा की नज़र अपने आप ही झुक गए…!!


सबके जाने तक सूरज वैसे ही मेज़ पर बैठा रहा। कड़क की सर्दी में चाय की मनमोहक सुगंध के साथ खुली मेज़ पे बैठकर तपते हुए सूरज के किरणों में अपने हाथ पैर सेकने का मज़ा वही बता सकता है जिसने यह किया है। कुछ ऐसे ही मज़ा ले रहा था सूरज। और चंदा के हाथ बटाते हुए चाय के मटके बढ़ा दिया करता था बाकी के ग्राहकों को।धीरे धीरे चाय पीने के लत छोड़ लोग अपने काम पर निकलने लगे और दुकान भी खाली होने लगा।चंदा सामान समेटने लगी और दुकान बंद करके घर जाने को निकली।बिना कुछ कहे सूरज उसके साथ उसके मदद में लगा था।चंदा के घर पहुंचने के बाद वो दरवाजा खोल अंदर गई और सूरज वहीं बरंडा पे बैठा। एक ग्लास पानी हाथों में लिए चंदा आई और बरांडे पे बैठी।


"कैसी है चंदा…"ख़ामोशी तोड़ के पूछा सूरज…


"ठीक हूं। तू कैसा है?"चंदा भी पूछ बैठी।


"ठीक ही हूं। पढ़ाई खत्म हो गई है। सहर में नौकरी के लिए अर्जी दी है। जब तक कहीं से बुलावा आए तब तक सोचा के गांव में हो रूक जाऊं…"पानी पीते हुए सूरज बोला।


"अच्छा…तो नौकरी हो जाए तो चला जाएगा हमेशा के लिए?" अपने आंसू रोकते हुए चंदा बिना सोचे कह बैठी।


सूरज अब उठ के उसके पास आया और चंदा के हाथों को अपने हथेली पे लिए बोला…"हां…चला जाऊंगा हमेशा के लिए…अपने दुलहनिया चंदा को साथ लिए…!!


इस बात पे चंदा शर्म के मारे अपने हाथ उसके हाथों से छुड़ाकर अपने चेहरा को ढंक दिया।सूरज धीरे से उसके हाथों को हटाया और चंदा के मुंह को अपने हाथों से पकड़ते हुए बोला…"नौकरी से पहले तेरा हाथ नहीं मांग सकता न…इसीलिए चुप हूं चंदा।वरना आज ही रामु काका से ईजाजत लेकर फेरें ले लेता तेरे संग…"


चंदा अपने थपथपाते होठों पे मुस्कान लिए बोली…"कोई बात नहीं…तुझपे यकीन है। बचपन से तेरे हो सपने देखे हैं मैने। जहां इतना इंतजार किया है वहां और थोड़े दिन राह तकना बड़ी बात नही है सूरज…"


"बस चंदा…अब तो मुझसे भी इंतजार नहीं की जाती अब। पर जब तक ढंग का कोई काम नही मिलता मेरे हाथ भी बंध गए हैं…"सूरज गहरी सोच में बोला।


चंदा…"पर तू सहर में बसने का फैसला ले चुका है यह अपने बापू से बोला है की नहीं? और उनका यहां जो जमीन है उन सबका क्या होगा सोचा है?"


सूरज…"एक बार नौकरी मिल जाने दे फिर बापू को मना लूंगा और गांव के जमीन बेचके सहर में एक मकान ले लूंगा।वहां हम आराम से रहेंगे।फिक्र मत कर तू…"


फिक्र कैसे न होती भला? बता नहीं सकती थी चंदा। पर उसके चले जाने के बाद उसके बाबा का क्या होगा यह सोचते ही उसका कलेजा कांप उठता था। सही है लड़की पराया धन मानी जाती है। पर कोनसी लड़की भला अपने मातापिता को पराया मान लेती है? मगर यह बात कैसे वो कहती सूरज से? इसीलिए चुप रही। जब जरूरत होगी तभी मुंह खोलेगी वो…


रामु के आते आते शाम हो गई।चंदा रात के खाने के लिए कुछ जुगाड करदेने के बाद जाकर दुकान खोल चुकी थी तब तक। रामु ने मटके संभालकर दुकान के बगल वाले कमरे में रखने के बाद सीधा सामने के कमरे में आकर दुकान का हाल देखने लगा। दुकान में भिड़ उमड़ी पड़ी थी। रामु का सीना भिड़ देख चौड़ा हो गया। चुनाव ही बड़ा मुद्दा था। 


"अरे रामु…पिछली बार तुम लोगों ने जिस पार्टी को अपना भाग्य विधाता चुना है उसने क्या दिया रे इतने साल से…?"टोपी पहने हुए एक कार्यकर्ता पूछने लगे।


रामु भी अपनी सोच रोक न सका । "मुस्किलें वैसी की वैसी ही हैं भाई।सच कहते हो आप…"


इस बात पर बड़ी चर्चा शुरू हो गई के पिछले सालों में क्या क्या विकाश हुआ हे इस इलाके में। सब कुछ तो वैसे का वैसे ही था।क्या बदलाव आया? न ढंग का अस्पताल बना न पढ़ाई के लिए कोई नया स्कूल खुला। सब चुनावी वादें ही थे सायद…!! कितने उम्मीदें लागई थी सब ने इस पार्टी से। पहली बार यह पार्टी चुनाव में आई थी। और बहत सारे वादें भी किया था जनता से। पर जीत के बाद जैसे सारे वादें बारिश के पानी से धूल गए…!!


"अब क्या किया जाए भाई…यह सब हमारी किस्मत ही तो है…"सूरज के पिता हरिया बोले।


"हरिया…नेता चुनते हुए ध्यान रखना चाहिए न। जिस किसीको भी चुन लोगे तो ऐसा ही हाल होगा। इसीलिए बोल रहे हैं कान खोलके सब शुन लो। हमारे पार्टी को जितवाओ। समझे भाइयों?" टोपी वाले भैया बोले और सबको राम राम कहते हुए वहां से चले गए।


"सही है। चुनाव गलत हो गया न तो कईं साल बरबाद हो जाती है। नेता का चुनाव बहत ध्यान से करना चाहिए…"सूरज कहा


"पर सूरज…एक ढंग का नेता कैसे पहचान में आएगा बोल तो?" रामु पूछे


इस बात पर वहां बैठे सब ने अपनी अपनी राय दे डाली। कोई कहा नेता साधसिधा होना चाहिए। कोई कहने लगा के नेता आम इंसानों में से एक होना चाहिए। कोई बोला के नेता पढालिखा और समझदार होना चाहिए। ऐसे ही बातों बातों में किसीने पूछ लिया…"अरे सूरज…इस बार तू क्यों नहीं खड़ा हो जाता है? निर्दलीय उम्मीदवार बनकर?"


"अरे ना काका ना…मुझे इस झिंझट में नहीं पड़ना। मेरी पढ़ाई हो चुकी है। बस अब एक अच्छी नौकरी की तलाश है।और कुछ नहीं।


तभी वहां बैठे बुजुर्ग भोला काका ने कहा…"क्यों सूरज? तू भी तो गांव का भला चाहता है न? हम सब के बीच रहकर हमारा कोई अपना अगर हमारा रखवाला बनेगा तो कितना अच्छा होगा । हमारे तो जैसे सारे सपने ही सच हो जाएंगे बेटा…"


भोला काका के बातें सबके मन को छू गई। वहां बैठे सबको जैसे उम्मीद की एक नए किरण नज़र आ गई। सब बारी बारी अपनी बातें रखने लगे। कोई कहा कैसे चुनाव से पहले पार्टी के लोगों ने उनसे वादा किया था के उनके पार्टी सत्ते पे आते ही पानी का जुगाड अच्छे से करवा देंगे खेती के लिए। पर कुछ नही किया। कोई कहा उनसे वादा किया गया था के घर घर बिजली की रोशनी आ जाएगी और वो भी मुफ्त। पर वो भी झूट ही था। कोई इलाज न पाकर अपने पिता को दम तोड़ते देखे थे तो कोई अपने टूटे छत बनाने के ख्वाब आंखों में लिए खुले छत के नीचे आसमान को देख चुपचाप आंसू बहाता था। कोई अपने बच्चों को पढ़ाने का सपना टूटता हुआ देख दुखी था तो कोई बेरोजगारी से परेशान था। यह सब काम इतने मुस्किल भी न थे सायद। सूरज सोचने लगा के सरकार बहत सारी योजना बनाती है गांव के लिए। फिर गांव में इतने सारे अनसुलझे सवाल कैसे रह जाते हैं…?क्या इन सब का सिर्फ एक ही इलाज है…?और वो भी एक ऐसा नेता का चुनाव जो राजनीति न करे पर सेवा का काम करे…??और इसके लिए क्या यह सही नही है के कोई उनके बीच रहकर ही उनके दर्द कम करने का कोशिश करे…??


गहरी सोच में डूबे सूरज के जवाब का सबको इंतजार था।


तभी हरिया काका बोल उठे…"गांववाले ठीक कह रहे हैं बेटा। अगर सबकी यही मर्जी है तो तू भी इस बार गांव के चुनाव में लड़ेगा और सरकार बनाएगा। वैसे भी यह सब भोट का ही तो खेल है। सारे गांववाले अगर तुझे अपना नेता मानने लग गए है तो अब तू पीछे न हटना। आगे जो नसीबों में होगा वही अपनी झोली में आ के गिरेगा बेटा…"


सूरज सब के और देखने लगा। एक नज़र उसने चंदा के और भी डाली। पर चंदा के आंखों में उसको कुछ खटकता हुआ दिखा। उस वक्त कुछ भी पुख्ता जवाब न देते हुए वो चुप रहा। धीरे धीरे दुकान खाली होने लगा। सब अपने अपने घर चले गए। रात हो चुकी थी। सूरज भी घर लौट गया। अगले दिन सुबह जब हरिया खेत पे निकल गया और रामु दुकान चला गया तब मौका देख सूरज चंदा के पास आया।


सूरज…"तू नहीं चाहती क्या के तू भी एक जीते हुए राजनेता की दुल्हन बने?"


चंदा…"और हार गया तो किसकी दुल्हन बनाएगा?"


सूरज…"अरे चिंता मत कर। गांववाले खुद चाहते हैं मुझे अपना नेता बनाने को। फिर हार कैसी होगी मेरी?"


चंदा…"ऐसे कह रहा है तू जैसे सब तेरे घर के ही हैं। किसी पर इतना भरोसा करना क्या सही रहेगा? और फिर यह चुनाव,राजनीति,सत्ते का चक्कर…डर लगता है सूरज…!!कहीं तू फंस गया तो?"


सूरज…"अरे कुछ नहीं होगा । देख अपने गांव के लोगों की भलाई करने के लिए मौका मिला है तो इतना हिचकिचाना कैसा?"


चंदा…"अभी तो बस चुनाव में भाग लेने की बात ही हुई है और तू है की कूद पड़ा है मैदान में…" मुंह मोड़ते हुए चंदा वहां से उठके जाने लगी तो सूरज झट से उसका हाथ पकड़के बोला…"चंदा…तुझे भरोसा है न मुझ पे…?"


चंदा…"खुद से भी ज्यादा…"


सूरज…"बस और कुछ न चाहिए…"


चंदा…"बचपन से सोचती हूं में…सूरज और चंदा कैसे एक साथ रह सकते है? अब यह तुझपे है की इस सोच को मेरा वहम करेगा या सच्चाई का नाम देगा…!!"


अपने बाहों में लेकर सूरज चंदा के बाल सेहराने लगा और हमेशा की तरह बोला…"हम नए सिलसिले के शुरुवात करेंगे देखना…"


वक्त पंख लगाकर उड़ रहा था शायद…!!


लगता था जैसे पलक झपकते ही सब कुछ बदल गया। सूरज निर्दलीय उम्मीदवार बना। जहां बाकी उम्मीदवार अपने अपने प्रचार में लगे थे वहां नया नया दल बनाता हुआ सूरज को बहत कुछ सीखना था। पैसों की जरूरत पूरी करने के लिए हरिया अपनी जमीन को बेच दिए। और करते भी तो क्या? उम्मीद थी की अगर बेटा जीत गया तो जीवन भर की थकान मिट जाएगी। ऐसे कितने जमीन आयेंगे और कितने कमाई भी होगी। पर अभी के लिए हरिया का काम ठप हो चुका था और वो भी अपने बेटे के मदद के लिए दिनरात एक करने लगे।


सूरज पर उस इलाके के एक नेता बिहारीजी बड़े खुस थे। सहर से लौटा गांव का बेटा गांव के भलाई के लिए आगे बढ़ रहा था देख वो उसको अपने और से मदद का हाथ बढ़ाए। उनका बेटा बिरजू भी सूरज का मदद करता था।क्यों के बिहारिजी ऐसा चाहते थे। सूरज गांव से दूर था।सहर में पढ़ाई जो कर रहा था। इसीलिए बिरजू उसको गांव के हर चुनौती से वाकिफ करवाने लगा। बिरजू भी अक्सर रामु के दुकान के बाहर बैठ के सूरज के साथ बातों में वक्त काटता था। पर उसकी पसंद चाय पीने से ज्यादा चंदा को निहारने में था। बहत दिनों से चंदा पे उसकी नज़र थी। मन ही मन वो पसंद करता था चंदा को । पर चंदा कभी कहीं अकेले मिले तो न अपनी दिल की बात वो करता। चंदा भी गांव की बाकी लड़कियों के तरह बिलकुल नही थी। अपने बाप के कंधे से कंधा मिलाकर दुनिया के सामने बैठने वाली लड़की थी। उससे ऐसे ही बात करलेने की गुस्ताखी बिरजू नहीं कर पाया कभी। अब जब मौका मिला था तो बिरजू उसको बिना गवाएं फायदा उठाने के कोशिश में लगा था। कोई और जाने या न जाने पर चंदा के आंखें जरूर पहचान रहे थे उसकी नजरों की बोली को। पर उससे नज़र मिलते ही चंदा अपनी नज़र फेर लेती थी। उसका बस चलता तो वो कभी उसे दुकान पे नहीं आने ही देती। पर दुकान जज्बातों पे नहीं चलती यह भी वो समझ गई थी।और बिहारिजी का भी मान रखना बहत जरूरी था। वैसे बिरजू अच्छा लड़का था। बस चंदा उससे दूर रहना चाहती थी। क्यों के उसका मन सूरज के और चला गया था...!!


कभी कभी वक्त ऐसे करवट लेता है की इंसान तब क्या करें क्या न करें कुछ सोचने का मौका भी नहीं पाता। ऐसे ही एक कशमकश में फस चुका था सूरज जब अचानक दिल का दोहरा पड़ने पर रामु काका चल बसे। इतनी बड़ी दुनिया में चंदा अकेली हो गई। दुकान संभालने बाहर अकेले निकलना जितना मुस्कील नहीं था ; उससे ज्यादा मुस्किल था घर में अपने पिता के बिना वक्त काटना। खुद के लिए खाना बनाना या खुद का खयाल रखना। सूरज से यह सब देखा नहीं गया। वो कोशिश करने लगा के किसी भी तरह चंदा अपने गम भुलाकर फिर से जी सके। पर चुनाव नज़दीक था। दोनों तरफ़ खुद को बांटने हुए वो परेशान हो रहा था।


काम में खिलाफी देख के बिहारिजी थोड़े नाराज़ हुए सूरज पर।


"छोरा…ऐसे करेगा तो बाज़ी पलट जाएगी।जीती हुई जंग काहे हारना चाहे हे बता…!!"बिहारिजी कहने लगे।


"वो सर…चंदा के बापू नहीं रहे। वो अकेली है। इसीलिए…"


सूरज के बातें खत्म होने से पहले ही बिहारिजी फिर बोले…


"देख सूरज…ये चंदा से मिलने के चक्कर में कहीं चुनाव हात से चला गया न तो…अरे रामु मर गया। चंदा अकेली पड़ गई। ये सब बोलेगा क्या तू अपने भाषण में? लोग तेरे से उम्मीद लगाए बैठें हैं। मैने अपने बेटे को यह मौका नहीं दिया जो तुझे दिया है। अब ऐसे फालतू के बातें मेरे सामने न कर।समझा…?"


सूरज क्या करता? चंदा को संभालना जितना जरूरी था उतना ही पार्टी में उसकी ज़रूरत भी बहत जरूरी था। सिर्फ चंद दिन थे चुनाव को। जीती हुई बाजी हारना वो भी नहीं चाहता था। क्या करता…!!कहने लगा…


"सर…अगर आप कहें तो में …"


पता नहीं कहां से तब बिरजू आ गया और कहने लगा…"चंदा का फिक्र करना छोर दे सूरज। तू काम पे लगा रह।चंदा से ज्यादा जरूरी तेरे लिए अब कुछ और भी है न...? वैसे भी बापू मेरे जगह तेरेको चुने हैं अपना उम्मीदवार बना के। गांववालों को भी तो नया चेहरा चाहिए था जो तेरे पास है। भाई हम तो यहीं इसी मिट्टी के हैं। तू सहर का पढ़ालिखा बाबू है । इसीलिए तू हीरो बना है अब तो…"


समझ रहा था सूरज। अपने बेटे को मौका देने के जगह बिहारिजी ने उसको आगे बढ़ने का मौका दे दिया और यह बात बिरजू को खटक रही थी। पर वो सच ही तो कहता है के चंदा से ज्यादा जरूरी और भी काम है उसके लिए। सायद इस वजह से कुछ नहीं कहा वो।बस थोड़ा मुस्कुराया और चर्चा में लग गया पार्टी के काम में।


बस सात दिन बाकी थे चुनाव को और कहीं से खबर आ गई के सत्ते के खिलाप है विरोधी दल एक साथ बिपक्ष मोर्चा निकालेंगे और एक बहत बड़ा रैली करते हुए दिल्ली तक पहुंच जाएंगे। रात दिन एक हो चुके थे। सूरज मुस्किल से वक्त निकाल के चंदा के पास पहुंचा और कहा…


"कल जा रहा हूं सहर। फिर दिल्ली जाना है ।आते आते एक हफ्ता हो जाएगा। चुनाव से पहले पहुंचना होगा न…"


होटों पे फीकी मुस्कान लिए बोली चंदा…"हूं…"


सूरज उसके पास आया और उसके हाथ अपने हाथों में लिए चौंक पड़ा…


"बुखार है तुझे चंदा…!!बदन तप रहा है…!! बताया नहीं तू ने…?"


"अच्छा…तीन दिन से फोन उठाता है और थोड़ा व्यस्त हूं…बाद में करता हूं कहकर काट देता है न तू…?"


"हां वो…पर बताया होता न के बुखार है तुझे…"


"तो क्या करता सूरज? आ जाता क्या मेरे पास…?"


उत्तर नहीं था सूरज के पास। वो भी जानता था के उसका ध्यान अब पार्टी के काम में ज्यादा है। एक पूरा मोर्चा संभाल सकता है अब वो पर वक्त नहीं निकाल पाता चंदा के लिए।

रामु काका के जाने के बाद सिर्फ एक ही महीने में ही चंदा का हाल बेहाल हो चुका है। दुकान बंद पड़ा है। चंदा अकेली ही जूझती रही है मुस्किलों से । पर सूरज मुश्किल से दो बार ही आ पाया है उससे मिलने। इसीलिए तो उसको अपनी तबियत के बारे में बताया नहीं गया चंदा से। सूरज मजबूर था। चंदा के लिए उसकी फिक्र तो थी पर वहीं चुनाव के जिम्मेदारियां भी बहत बड़े थे। लोगों का दिल उस पर आने लगा था।और एक बड़े विरोधी दल के हाई कमांड भी बिहारिजी से उसके बारे में पूछ रहे थे। चुनाव के बाद गठबंधन के संभानना सामने आने लगे थे।इसीलिए चंदा के पास रहकर भी सूरज उससे कोशों दूर था।


चंदा अपनी परेशानियां उससे बांटने के लिए पसंद नहीं कर रही थी अब।पिता के जाने के बाद वो जाने कैसे कमजोर सी हो गई थी।तब सायद उसको सूरज की कमी भी बहत ज्यादा खल रही थी। पर …क्या सूरज उसके पास हो सकता था…!!??


बुखार के किए दवा लाने जब सूरज निकलना चाहा तो चंदा ने मना कर दी।


"अपना खयाल रखना चंदा…मैं काम निपटा कर आता हूं…"कहकर सूरज निकल गया घर से। घर के बाहर खड़े दो कार्यकर्ता के कंधे पर हाथ रखकर आगे चलता रहा वो…चंदा पीछे से सिर्फ देख रही थी।


आजकल लेकिन बिरजू काफी समझने लगा था चंदा को। रामु काका के जाने की बाद से ही वो उसके इर्द गिर्द रहने लगा था। पहले चंदा उसको नापसंद करके फटकार देती थी। पर वक्त के साथ रोज रोज बिरजू का वो खाना हाथों में लिए घर के बाहर खड़ा रहना… रात को भी चन्दा के घर के सामने वाले भैयाजी के बरांदे में रहके उसपे नजर रखना और अब जब उसको बुखार हुआ तो साये के तरह उसका साथ देना…रात को पानी की पट्टी देना…दवा लाकर वक्त पे देना…यह सब चंदा के मन को नरम कर रहे थे। सूरज के दूर जाते हुए कदम ताकने से अच्छा था के वो बिरजू के नजदीक थमे हुए कदम को देखती…!!


चन्दा अगले दिन सुबह अच्छा महसूस कर रही थी। बिरजू उसको चाय का गिलास पकड़ा के बोला…


"बुरा न माने तो एक बात कहूं…?"


"हां बोल…"चंदा उसके और न देखते हुए बोली।


"रामु काका के मटके चाय को लोग बहत खोज रहे हैं।तू हां करे तो मैं दुकान दोबारा खोलवाने का प्रबंध करूंगा…"


"सही कह रहा है बिरजू…दुकान तो खोलनी ही होगी। पर तेरे एहसान के तले मैं दबना नहीं चाहती…"


"दोस्त न सही…पहचान का ही कोई मान ले मुझको ।एहसान नहीं पर समझले तेरे मेरे बीच सौदा होगा एक…"


"मतलब…?"


"देख…रोज तेरी दुकान पे मुफ्त का चाय पिलाएगी मुझे। और मैं तेरी मदद कर लिया करूंगा । बोल…मंजूर है क्या सौदा?"


इस बात पर दोनो जोरसे हस पड़े। बहत दिनों बाद चंदा मुस्कुरा रही थी। उसके आखों में खुसी और गम से घुले हुए आंसू आ रहे थे। बिरजू चट से जाके उनको टपकने से पहले धर चुका था अपने हतेली पे।


मटके चाय की दुकान खुल गई।लोग पहले के तरह वहां भिड़ जमाने लगे। राजनीति और अन्य विषयों पर चर्चा करने लगे। बिरजू चंदा के पास खड़ा होकर ग्राहकों को चाय देने में मदद करता था। बिहारिजी ईस बात पे नाराज हुए थे पर बिरजू ने समझा दिया के वो पहली बार दिल से कुछ कर रहा है। उसको मना न करें…।


बिहारिजी उस दिन के बाद चुप होकर चुनाव में ध्यान देने लगे।


बहुमत से निर्दलीय नेता सूरज चुना गया उनके इलाके में। बहत बड़ी रैली निकाली गई गांव से सहर तक जीत की खुशी में । और उसके जीत के बाद बड़े पार्टी के साथ उसका गठबंधन भी हो गया। लगभक एक महीने के बाद एक दिन सूरज चाय के दुकान पे आया। साथ उसके कुछ कार्यकर्ता भी आए थे।चंदा को देख के सूरज पूछा…


"कैसी है चंदा? मुझे बधाई देने नहीं आई तू?"


"बधाई हो …"चंदा मुंह उठाए बगैर बोली।


"मैं जीत चुका हूं। अब सारी परेशानियां खत्म हो चुकी है…!! बहत खुस हूं मैं… "


"हूं…"


"अब एक के बाद एक काम निपटाना है बस…"चाय का मटका हाथ में लिए बोला सूरज।


"अच्छा…तो यह बता शादी कब करेगा सूरज?...उसके और देख बोली चंदा।


"जल्दी क्या है चंदा…?" निगाहें चुराते हुए बोला सूरज


"हूं…कोई जल्दी नहीं है…!!"एक फीकी मुस्कान के साथ कहा चंदा ने


"देख…अभी तो चुनाव खत्म हुआ है।अगले पांच साल में बहत काम करने होंगे। बाकी बातें …"


आधे में उसके बात को वहीं रखते हुए चंदा बिरजू को बुलाने लगी…


बिरजू उसके पास आया चाय के मटके लेने।पर कोई मटका भरा ही नही था।हैरान होके वो देखा चंदा के और…चंदा बोली…


"कुछ लोगों की पुरानी आदत है के वो चाय के पैसे नहीं देते हैं। खास कर सत्ते के कुछ लोग। बापू के समय से ऐसा होता आया है। बहत मुफ्त की दे चुके हैं।अब और नहीं।इसीलिए यहां जो भी हैं उन सब से चाय के पैसे रख ले । आज के लिए दुकान में बंद करती हूं।घर आ जा। खाना खाएंगे साथ । 

और हां…सबसे पैसे याद से लेना बिरजू…"


सूरज समझ रहा था उसके इशारों को…थोड़ा चिढ़ाते हुए बोला…


"चंदा…हमे भी पैसे देने होंगे क्या? आखिर हम तो भिड़ में से चुने गए हैं अगवाई नेता के रूप में…"


चंदा दुकान बंद करते हुए हंसके बोली…"यह कोन कहा सूरज के मैने तुझे चुना है? मेरा चुनाव में अच्छी तरह जानती हूं ।चुनाव जीवन बदल देता है।वैसे क्या तू भूल गया के सूरज और चंदा कभी नहीं मिलते…!!??"


पैसे लेकर बिरजू चंदा के साथ कदम मिला कर आगे बढ़ता गया। चंदा मुस्कुराते हुए उससे बातें कर रही थी। और सूरज पीछे दुकान के बाहर ही खड़ा था। तभी उसके एक साथी ने कहा…"सर…आईए…आज सिएम के साथ मीटिंग के लिए रवाना होना है । देर हो जाएगी…"


सूरज अपना सर हिलाते हुए चुपचाप जाकर गाड़ी में बैठ गया …!


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