Prabodh Govil

Others

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मैं और मेरी जिंदगी -8

मैं और मेरी जिंदगी -8

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खचाखच भरी बस में कांकरिया लेक के पास हमारे साथ अनहोनी हो गई।

हमारे अध्यापक महोदय का पर्स किसी ने जेब से निकाल लिया। वे बुरी तरह हड़बड़ा गए और तत्काल हम सब को नीचे उतरने को कहा। पर्स में ढेर सारे पैसे तो थे ही, हमारे ट्रेन टिकिट, स्टेशन पर क्लॉक रूम में रखे सामान की रसीदें भी थीं।

वे माथे पर हाथ रख कर सड़क के किनारे बैठ गए। जैसे तैसे हम सब की जेबें खंगाल कर जो कुछ इकट्ठा हुआ,उसे लेकर हम सब रेलवे स्टेशन आ गए।

किसी ने भी खाना तक न खाया।

हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल ये था कि क्लॉक रूम से हमारा सामान कैसे निकले। फ़िर समस्या ये थी कि रात को वो ट्रेन तो चली जाएगी, जिसमें हमारा रिज़र्वेशन है। दोबारा टिकिट लेना और एक माह तक घर से इतनी दूर गुज़ारा करना।

वो ज़माना क्रेडिट डेबिट कार्ड के बारे में जानता तक न था। वहां तो घर पर पोस्टकार्ड डाला जाता तो पंद्रह दिन बाद घर या स्कूल से मनी ऑर्डर आना था। अध्यापक जी का कहना था कि सामान किसी तरह मिल जाए तो लेकर वापस जयपुर चलें। हम उनकी बातों से मायूस हो गए।

लेकिन भाभीजी ने रहस्योद्घाटन किया कि सामान मिल जाएगा तो उनके सूटकेस में पर्याप्त पैसे हैं। हम लोग दोबारा टिकिट लेकर बैंगलोर जा सकते हैं। बाद में ज़रूरत होने पर वहां पैसे मंगवाने की व्यवस्था की जा सकती थी।

काफ़ी देर तक चिंता में बैठे रहने के बाद मैं अपने संग एक लड़के को लेकर क्लॉक रूम के काउंटर पर गया और सारी बात बताई। वहां एक अधिकारी ने हमें सलाह दी कि यदि कोई स्थानीय व्यक्ति आपकी गारंटी देने के लिए आकर सहमत हो तो हम सामान दे देंगे।

हम अपने स्कूल से उनकी फोन पर बात करवाने की पेशकश करने लगे परन्तु हमारे शिक्षक नहीं चाहते थे कि बात स्कूल तक पहुंचे। एक तो उनकी नौकरी नई थी,दूसरे ज़िन्दगी में पहला ऐसा वाकया।

हम गारंटी का जुगाड़ देखने लगे। उन अधिकारी ने ही हमें बताया कि स्टेशन के पास ही राजस्थानी बाज़ार है, वहां शायद आपका पहचानने वाला कोई व्यापारी मिल जाए।

अंधेरे में तीर चलाने के ख़्याल से ही हम उस बाज़ार में भटकने लगे। संयोग से एक मारवाड़ी भोजनालय के मालिक जयपुर में हमारे स्कूल को अच्छी तरह पहचानने वाले मिल गए।

क्लॉक रूम से अपने अपने सूटकेस उठाते हुए हम लोग ऐसा महसूस कर रहे थे मानो हमें कारूं का ख़ज़ाना मिल गया हो।

बेचैनी और मायूसी की रात स्टेशन पर काटने के बाद अगली सुबह हम फ़िर से बैंगलोर की ट्रेन में थे।

हमारा उल्लास धीरे धीरे लौटने लगा।बैंगलोर में हमें एक नामी कॉलेज के हॉस्टल में ठहराया गया। कॉलेज में उन दिनों छुट्टियां थीं।

हम सभी को एक साथ मिला कर दस- दस छात्रों के समूह में बांटा गया। ये सभी छात्र अलग- अलग राज्यों के थे। इस तरह अपने साथियों से हम लोग केवल देर रात को ही मिल पाते थे जब हम सोने के लिए अपने कमरे में आते थे। सोने के लिए एक कक्ष में पंद्रह छात्रों को रखा गया था। ज़मीन पर लाइन से सबके बिस्तर लगे रहते।

कुछ दिनों के बाद छात्रों में दोस्तियां हो गई थीं और वे सोने के लिए भी अपनी मित्रता के अनुसार जगह बदल- बदल कर रहने लगे थे।

ये देखना दिलचस्प था कि अलग- अलग राज्य से आए लड़के एक दूसरे के साथ अभिन्न मित्र की तरह रह रहे थे और खाना, पीना, खेलना, सोना एक साथ कर रहे थे।

सभी को कैंप के दौरान अपनी मातृभाषा के अलावा कोई एक भाषा और सीखना ज़रूरी था।

इसी तरह मेस में बारी- बारी से अलग- अलग राज्यों का खाना बनता था और जिस दिन जिस राज्य का भोजन बनता उस दिन वहां के छात्रों को मेस में रह कर भोजन बनवाने में सहायता करनी होती थी। ताकि वे अपने राज्य में प्रचलित डिश अपने मार्गदर्शन में बनवा सकें।

सभी के लिए किसी अन्य राज्य का कोई लोकगीत और डांस सीखना ज़रूरी था।

अलग अलग कक्षों में इन सभी गतिविधियों के लिए शिक्षक और विशेषज्ञ उपस्थित रहते थे, और हम लोगों को टाइम टेबल के अनुसार वांछित कक्षों में जाना होता था।

मैंने वहां पंजाबी भाषा सीखी। लिखने में तो हमें अपना नाम और थोड़ा परिचय ही सिखाया गया किन्तु बोलने का अभ्यास काफ़ी कराया गया। वहां सिखाने वाले अध्यापकों के अलावा उस राज्य से आए कुछ छात्र भी होते थे। मैंने एक कन्नड़ गीत भी वहां सीखा। इसके अतिरिक्त बुंदेलखंड का एक लोकनृत्य भी मैंने सीखा जिसे मध्यप्रदेश से आए दल ने सिखाया। हमने भी राजस्थान का भोजन एक दिन बनाया।

अलग- अलग राज्यों का ये प्रयोगवादी भोजन हमें लंच में मिलता था,बाक़ी सुबह का नाश्ता और रात का खाना सबको एक साथ और एक सा मिलता था।

सुबह जल्दी उठ कर हमें परेड में जाना होता था। उसके बाद योगा क्लास होती थी।

दक्षिण में गर्म प्रदेश होने के कारण लोग जूते कम पहनते हैं और सैंडल या चप्पल का प्रयोग ज़्यादा होता है। इसलिए वहां परेड में जूते पहनने की बाध्यता नहीं थी। मेरे लिए वहां परेड में शामिल होना असुविधा जनक नहीं था। कुछ छात्र ज़रूर सफ़ेद जूते पहन कर आते थे।

वहां पर केवल लड़कों का कैंप था।हमें बताया गया था कि लड़कियों का राष्ट्रीय एकता शिविर अलग किसी अन्य शहर में आयोजित किया गया था।

योगा में कुछ लड़के अंतर्वस्त्र और बनियान में आते थे,क्योंकि बैंगलोर शहर का मौसम अच्छा होने पर भी गर्मी वहां थी।

आरंभ के कुछ दिनों तक हम सबको रात का खाना एक सा मिला पर कुछ ही दिनों में हमारी मेस को वेज और नॉनवेज में बांट कर अलग-अलग कर दिया गया।

सभी को एक बार अपनी चॉइस बताने के बाद अंत तक उसी मेस में रहना था। बदलने की अनुमति नहीं थी।

मैंने यद्यपि कभी निरामिष भोजन नहीं किया था,फ़िर भी वहां नॉनवेज मेस में नाम लिखवा दिया।

जीवन में पहली बार अंडा, मछली, मुर्गा, मीट (बकरा) या चाइनीज़ भोजन मैंने यहीं चखा।

दक्षिण भारत में इडली, डोसा, चावल आदि भी हमें काफ़ी दिनों मिलते थे।

दोपहर के भोजन में बहुत विविधता होती थी।

फ़िर भी हमारे वेज मेस के छात्र इस बात से असंतुष्ट रहते थे कि उन्हें अच्छा भोजन नहीं मिलता था। शायद दक्षिण में अच्छी रोटी और चटपटी मसालेदार सब्जियां बनाने वाले कारीगर आसानी से नहीं मिलते थे।

मैंने कई ऐसे छात्रों को देखा जिन्होंने जीवन में पहली बार नॉनवेज खाना वहीं खाया।

हमें तीन चार दिन में एक बार बाज़ार भी ले जाया जाता था,ताकि हम अपनी ज़रूरत का सामान खरीद सकें। बिना नाड़े वाले अंडर वियर भी पहली बार मैंने वहीं खरीदे। उनमें बहुत हल्की इलास्टिक थी,जिससे मुझे असुविधा नहीं होती थी।

इस कारण मेरी पुरानी आदत से भी मुझे निजात मिली और मैं अंतर वस्त्र नियमित पहनने लगा।

इसी शिविर में मुझे अपने साथ के एक दो छात्रों से ये भी सुनने को मिला कि हॉस्टल के पीछे वाले फ्लैट्स में रहने वाले स्टाफ ने कुछ छात्रों को जीवन के कुछ नए अनुभव भी दिए।

रात को बिस्तर पर सोने के लिए लेटते ही मैंने अपने उस मित्र से पूरी बात विस्तार से बताने के लिए कहा। वह मुझसे एक क्लास नीचे का विद्यार्थी था,और एक वर्ष छोटा भी। वह पहले मुझे बताने में कुछ झिझका,किन्तु इस समय हम केवल दोनों ही वहां होने से उसका संकोच कम हुआ। हमारे कक्ष के बाक़ी लड़के धमा चौकड़ी मचाने के लिए दूसरे कमरों में गए हुए थे।

लड़के ने बताया कि हॉस्टल के एक पादरी शिक्षक ने उसे शाम को खेल के बाद अपने कमरे में बुला कर उसका "किस" लिया। इतना ही नहीं, बल्कि यह भी कहा है कि कल रात को आओ तो अपने किसी मित्र को भी लाना साथ में !

"क्यों? तूने पूछा नहीं?" मैं बोला।

"वो कह रहे थे कि रात देर हो जाने से तुम अकेले वापस लौटने में डरते हो, इसलिए !" लड़का बोला।

अगले दिन शाम को मैं भी उसके साथ "फादर" के कमरे में चला गया। पादरी शिक्षक बहुत खुश हुए। उन्होंने हमें कमरे में जूस पीने को दिया और स्कूल की कुछ एक्टिविटीज के फोटोज़ भी दिखाए। साथ ही बताया कि वे स्वयं बहुत अच्छे चित्रकार भी हैं। उनके बनाए कुछ आकर्षक चित्र भी हमने देखे। उनसे आत्मीयता से बात करना मुझे अच्छा लगा। मेरे मित्र की झिझक भी काफ़ी खुली। मुझे वो शिक्षक काफ़ी अच्छे स्वभाव के लगे। हम बाद में भी कभी - कभी उनसे मिलने जाते रहे।

मुझे ये जानने में दिलचस्पी थी कि फादर का बिना किसी के साथ, अकेले रहना और विवाह भी न करना,क्या कोई संन्यास है, दुर्भाग्य है, कोई कुटैव या लत है या फ़िर कोरी मजबूरी। अपनी इस जिज्ञासा के चलते फादर से हमारी बातचीत और भी आत्मीयता से होने लगी और एक दिन वे हमें अपने कमरे से थोड़ी दूर बनी फिजिक्स लैबोरेट्री दिखाने ले गए।

वे फिजिक्स के ही टीचर थे। मुझे ये जानकर बहुत अच्छा लगा और मैं बहुत चाव से उनके साथ चला गया। मित्र भी साथ में था।

लैब में वो हमें माइक्रोस्कोप में कुछ स्लाइड्स दिखाने लगे। वे समझाने के अंदाज़ में मेरे करीब आकर अपना हाथ मेरी कमर के गिर्द लपेट कर मुझे कुछ समझाने लगे। कुछ ही देर में उनका हाथ मेरी जांघों से होता हुआ मेरे अंदरूनी कपड़ों के भीतर था। मुझे अजीब सा तो लगा पर कुछ अच्छा सा भी लगा।

जब हम दोनों अपने कमरे में वापस लौट रहे थे तब मित्र ने मुझे बताया कि आज फादर ने उसके साथ क्या किया! जब मैंने उसे बताया कि ठीक उसका वाला अनुभव मुझे भी हुआ, तो वो काफ़ी आश्वस्त हुआ।

रात को सोते समय मैं सोच रहा था कि क्या शिक्षक शिक्षक में इतना अंतर होता है? एक शिक्षक अपने उत्सर्जन अंग को हाथ लगाने के बाद क्लास में साबुन से हाथ धोने की बात कहते हैं, तो दूसरे आराम से खुद वहां हाथ लगा देते हैं?

हम दो- तीन दिन तक फ़िर उनके पास नहीं गए।

किन्तु एक दिन सुबह नॉन वेज मेस में भारी खाना खा लेने के कारण शाम को मेरा खाना खाने का मन नहीं हुआ,तो डिनर टाइम में मैं और मेरा वही मित्र सड़क पर घूमने के लिए टहलते हुए निकल गए। चलते चलते बातें करते हुए हम दोनों ही फादर के कमरे में पहुंच गए।

फादर बहुत ही खुश हुए। कुछ दिन तक हमारे नहीं आने से शायद उन्हें मन ही मन कोई अपराध बोध महसूस हुआ हो, क्योंकि आज हमें फ़िर वहां देख कर वे अत्यंत उत्साहित और उत्तेजित लग रहे थे।

उन्होंने हमें कॉफी पिलाई और हम दोनों से ही एक दूसरे के सामने काफ़ी प्रेम से पेश आए।

उनका हमेशा वीरान सुनसान रहने वाला कमरा उस शाम तिहरी उत्तेजना से भर गया।

वे देर रात को हमें बाहर काफ़ी दूर तक छोड़ने भी आए।

अगले सप्ताह हमारे कैंप में दो दिन का सांस्कृतिक उत्सव होने वाला था। इन्हीं दोनों दिन अखिल भारतीय प्रतियोगिताएं भी होनी थीं, जिनके लिए हम लोग चुन कर आए थे।

मेरे मित्र को ग़ज़ल गायन स्पर्धा में भाग लेना था और मुझे चित्र कला में।

अगले कुछ दिन हमारे कैंप में बहुत चहल - पहल के रहे।

प्रतियोगिता के दौरान गोपाल स्वरूप पाठक भी शिविर में आए जो उन दिनों कर्नाटक के राज्यपाल थे। पाठक जी बाद में देश के उपराष्ट्रपति भी बने।

अगले दिन सुबह- सुबह परेड में जाने से पहले मैं शौचालय में था, कि तभी शौचालय का दरवाज़ा ज़ोर ज़ोर से बजने लगा। मैंने सोचा कि किसी छात्र को जोर के प्रेशर से लैट्रिन आई होगी इसलिए वह दरवाज़ा खुलवा रहा है। मैंने भीतर से ही कहा- यार किसी दूसरी में चला जा,मुझे अभी देर लगेगी।

पर बाहर से मेरे एक मित्र ने जवाब दिया - आज के अख़बार में राज्यपाल के साथ तेरा फोटो आया है!

मैंने जल्दी से कपड़े पहने और दरवाज़ा खोल कर बाहर आया। सच में अकेले मेरा बड़ा फ़ोटो कार्यक्रम के मुख्य अतिथि का स्वागत करते हुए छपा था। मैंने शिविर के सभी छात्रों की ओर से उनका स्वागत उन्हें गुलदस्ता भेंट करते हुए किया था। अगले दिन से ही शिविर में मेरी लोकप्रियता बढ़ गई।

इसी शिविर में एक बेहद मज़ेदार और अविश्वसनीय घटना और हुई।एक दिन हम बहुत से छात्र एक बड़े प्रांगण में बैठे हुए किसी चर्चा में व्यस्त थे कि शिविर के एक अधिकारी वहां आए और उन्होंने घोषणा की, कि राजस्थान के किसी नगर से एक टेलीग्राम आया है जिसमें शहर का नाम काग़ज़ फट जाने से पढ़ने में नहीं आ रहा है। किन्तु तार का मजमून ये है कि "राजस्थान बोर्ड की सैकंडरी परीक्षा का परिणाम घोषित हो गया है, और प्रबोध फर्स्ट डिवीजन पास हुआ है।"

मैं उछल पड़ा, और एकदम खड़ा हो गया। पर मेरे आश्चर्य का पारावार न रहा जब मैंने देखा कि प्रांगण के दूसरे कौने से एक और लड़का खड़ा हो गया। सब शिक्षक और छात्र देखने लगे कि आखिर माजरा क्या है?

दरअसल राजस्थान के बीकानेर शहर से एक लड़का आया था, उसका नाम भी प्रबोध था, और वह भी दसवीं की परीक्षा देकर ही कैंप में आया था।

सब चकित थे। बीकानेर से आए शिक्षक ने तत्काल कहा- "प्रबोध हमारे विद्यालय का अच्छा छात्र है, और ये हमेशा फर्स्ट क्लास ही आता रहा है, ये परिणाम इसका ही हो सकता है।"

तुरंत हमारे सर भी बोल पड़े- "प्रबोध की फर्स्ट डिवीजन आने की हमें पूरी आशा है,ये तेज़ छात्र है। ये तार जयपुर से आया हुआ भी हो सकता है।"

हम दोनों के सरनेम अलग थे, पर टेलीग्राम में सरनेम का कोई ज़िक्र नहीं था। दो तीन शिक्षक बारी- बारी से तार को हाथ में लेकर उलट- पलट कर देखने लगे। तार से शहर का नाम और भेजने वाले का नाम फट चुका था और पढ़ने में नहीं आ रहा था।

तभी एक शिक्षक बोल पड़े कि भेजने वाले के नाम में केवल एक पहला अक्षर "वी" जैसा दिखाई देता है।

मैं तत्काल बोला- "मेरे बड़े भाई का नाम विनोद है, वे जयपुर में रहते हैं।"

तुरंत बीकानेर वाला लड़का प्रबोध मेरे पास आया और हाथ मिला कर मुझे बधाई दी। उसके ऐसा करते ही बहुत से लड़के मेरे पास आकर मुझे बधाई देने लगे। कुछ शिक्षकों ने भी मुझे बधाई दी।

मैंने तार को हाथ में लेकर एक बार फ़िर से चैक किया कि तार भेजने वाले के नाम का पहला अक्षर "वी" ही है या नहीं! उत्साह और उल्लास दो गुणा हो गया। दिन भर घर और स्कूल की याद आती रही।

अभी हमारे यहां से लौटने में आठ- दस दिन बाक़ी थे। दूसरे दिन ही पता चला कि बीकानेर वाले प्रबोध की भी प्रथम श्रेणी ही आई थी।हम दोनों में प्रगाढ़ दोस्ती हो गई,और हम अक्सर साथ रहने लगे।

एक दिन हमारे कुछ मित्र शाम को कमरे में आए तो मैं और प्रबोध बैठे बातें कर रहे थे।

एक लड़का बोला - "हम तुम दोनों को ही ढूंढ़ रहे थे।"

मैंने कहा - "क्यों?"

वो बोला - "हम तुम दोनों के फर्स्ट आने की पार्टी कर रहे हैं, तुम्हारे पास दो चॉइस हैं,निर्णय तुम्हें लेना है।"

हम दोनों ही मन ही मन खुश होते हुए एक साथ बोल पड़े - "क्या?"

लड़का कुछ रहस्यमय स्वर में बोला - "या तो पार्टी का खर्चा तुम दोनों दोगे, या फ़िर हम जो तय करेंगे वही खाना पीना पड़ेगा।"

प्रबोध शायद कुछ समझ गया,तत्काल हड़बड़ाकर बोला - "मैं नॉन वेज नहीं खाता, खाऊंगा भी नहीं।" उसकी घबराहट देख कर बाक़ी सब लड़के हंस पड़े।

तभी एक लड़के ने कहा- "खाना तो सबको मेस में ही खाना है,हम तो बस थोड़ी सी बीयर लाए हैं।"

ये सुनते ही हम दोनों ही उछल पड़े और एक साथ बोल पड़े- "सवाल ही पैदा नहीं होता !"

यद्यपि मैंने पहले जीवन में कभी भी बीयर या और कोई शराब नहीं पी थी, उस दिन मित्रों के कहने पर केवल एक घूंट पी कर उसका स्वाद चखा।

प्रबोध इसके लिए तैयार नहीं था, पर दोस्तों ने इस बात का वास्ता दिया कि हम लोग आगे जीवन में न जाने कभी फ़िर मिलेंगे भी या नहीं। फ़िर मुझे घूंट भरते देख कर उसने भी भारी कठिनाई से एक घूंट किसी तरह भरा। इसी के साथ उसे हल्की खांसी भी आई,पर लड़कों ने खुश होकर तालियां बजाईं और हम सब झुंड बना कर खाना खाने चल दिए।

अगले दिन हमें बताया गया कि परिसर के पिछवाड़े में एक स्विमिंग पूल है,जिसे आज से छात्रों की मांग पर खोल दिया गया है। ये कहा गया कि जो छात्र स्विमिंग के लिए जाना चाहें वे सुबह योगा क्लास वाले समय में वहां जा सकते हैं।

मैं भी अपने मित्र के साथ वहां चला गया। मैं तब तक तैरना नहीं जानता था,किन्तु गांव के तालाब में कभी - कभी नहाने और हाथ पैर मारने का मौक़ा ज़रूर मुझे मिला था।

इससे पहले मैं या तो चड्डी पहनता ही नहीं था या कपड़े की नाड़े वाली हाथ की सिली हुई चड्डी ही मैंने पहनी थी। यहां आने के बाद पहली बार इलास्टिक वाला अंडरवियर पहना था, जो "वी" शेप का और छोटा होने से मुझे कुछ संकोच सा हो रहा था।

पर एक दो दिन में ही मैं इसका अभ्यस्त हो गया।

कुछ उत्साही लड़के तो तुरंत बाज़ार जाकर स्विमिंग कॉस्ट्यूम भी ले आए थे। कुछ अच्छी तरह तैरना जानने वाले भी थे।

यहां मैंने ज़िंदगी में पहली बार दो तीन बातों पर भी गौर किया। मैंने पहली बार ये अनुभव किया कि चेहरे और शरीर के सौंदर्य में कोई समानता नहीं होती। कुछ लड़के जो शक्ल से बहुत खूबसूरत लगते थे उनके शरीर दुबले- पतले या आनुपातिक रूप से बेडौल भी थे। इसके विपरीत कुछ लड़के ऐसे भी थे जिनका चेहरा सुन्दर न होते हुए भी शरीर गठीला,कसा हुआ और संतुलित लगता था।

यहां मुझे समझ में आया कि मेरे पुराने स्कूल के साथी लड़कियों के चेहरे की तुलना में शरीर की सुंदरता पर क्यों ध्यान देते थे !

मैंने ये भी देखा कि लंबाई या डीलडौल का संबंध हमारे गुप्तांग के आकार से नहीं होता। कई छोटे, दुबले- पतले लड़कों के निजी अंग लंबे और पुष्ट थे और कुछ लंबे बलिष्ठ व्यक्तित्व के मालिक लड़कों के पास निजी अंग इसकी तुलना में छोटे या पतले थे।

यही बात किशोरों के संकोच के बारे में भी थी। कुछ लड़के कपड़े बदलने में इतना झिझकते थे कि चेंज रूम में नम्बर आने के लिए कतार में लगते थे, वहीं कुछ लड़के निसंकोच बाहर ही स्विमिंग के कपड़े पहन भी लेते थे,और उतार कर बदल भी लेते।

पहली बार कुछ लड़कों को निर्वस्त्र देखने का अवसर भी वहां मिला। लड़के गुप्त स्थान पर उगने वाले बालों के लिए भी अलग नज़रिया रखते थे। कोई- कोई बालों को काट कर साफ़ रखते थे तो कुछ के बाल नैसर्गिक रूप से बढ़े हुए ही रहते थे।

एक बात पर मेरा ध्यान यहां और गया। किशोरों के बाल भी उनकी सुंदरता निर्धारित करते हैं।

सुन्दर बालों वाले लड़के पानी में भीगने के बाद अपने बालों के जम जाने के कारण अजीब से लगने लग जाते थे।

मुझे अपने पहले स्कूल की लड़की मंजरी का ख़्याल आया जो बात करते समय सुन्दर बालों वाले लड़कों के माथे पर हाथ लगाती रहती थी। इस बात की पुष्टि भी हुई कि लड़कों का सीना चौड़ा होने से वे सुन्दर लगते हैं।

मंजरी कई बार लड़कों से बात करते समय उनकी शर्ट के बटन से भी खेलती रहती थी। कुदरत को देखने के तौर तरीके भी उतने ही निराले थे जितनी खुद कुदरत !



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