Prabodh Govil

Others

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मैं और मेरी जिंदगी -6

मैं और मेरी जिंदगी -6

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आठवीं कक्षा का परिणाम भी एक दिन आ गया। हमारे विद्यालय में छात्र संख्या बहुत होने के कारण आठवीं के भी बहुत सारे सेक्शन थे। मेरे अपने सेक्शन में तो सर्वाधिक अंक आए किन्तु मुझे ये नहीं पता चल पाया कि कुल मिलाकर मेरा कौन सा स्थान बना।

मेरी ये जानने में ज़्यादा दिलचस्पी भी नहीं थी क्योंकि मुझे ये पता चल गया था कि अन्य सेक्शंस में कुछ लड़कों के मुझसे भी अधिक अंक हैं।

स्कूल के वार्षिकोत्सव में एक और चित्रकला प्रतियोगिता के लिए प्रदेश के मुख्यमंत्री के हाथों मुझे स्वर्ण पदक मिला। साथी,दोस्त और घरवाले भी समझ गए कि मेरी उपलब्धियां परीक्षा के अंकों से ज़्यादा दूसरी गतिविधियों में ही हैं।

दूसरे,अब नवीं कक्षा से तो सब कुछ बदल ही जाना था। मैथ्स के लड़कों को अलग होना था, बायोलॉजी के अलग।

मेरे लिए ये भी विचित्र था कि अन्य गतिविधियों में मेरे साथ रहकर मेरे आत्मीय मित्र बन चुके कुछ लड़के आर्ट्स और कॉमर्स में जाने की भी सोच रहे थे।

स्कूल में विज्ञान की कक्षाएं पहली शिफ्ट में,सुबह सुबह लगती थीं और कला या कॉमर्स की दोपहर को,इस कारण भी हम मित्रों के मिलने जुलने के नए समीकरण बने और काफ़ी बदलाव आया।

एक तरह से फ़िर से नए स्कूल में जाने जैसी स्थिति ही बन गई।

फिजिक्स केमिस्ट्री और बायोलॉजी नए विषयों के रूप में आ गए।

यहां आने के बाद कभी कभी मेरे मन में एक खास किस्म का अपराध बोध आता, कि हमारी क्लास में लोग इन्हीं विषयों पर ध्यान देते हैं और चित्रकला,डिबेट आदि को समय की बरबादी जैसा मानते हैं।

हिंदी जैसा विषय, जिसमें मुझे विशेष योग्यता हासिल थी,यहां किसी की प्राथमिकता में नहीं आता था और लड़के भाषाओं के नाम पर अंग्रेज़ी के प्रति ही ज़्यादा सजग रहते थे।

मैं ये नहीं स्वीकार कर पाता था कि मैं इस क्लास का अच्छा और तेज़ छात्र होते हुए भी जो कुछ चाहता या सोचता हूं, वह एकदम बेकार या फ़ालतू है।

लेकिन समय- समय पर मेरे पिता भी मुझे यही समझाया करते थे कि मैं अंग्रेज़ी पर अपनी पकड़ ढीली न पड़ने दूं। तब मुझे महसूस होता कि ये बाक़ी लड़के भी सही सोच रखते हैं, शायद इनके अभिभावक भी इन्हें इसी तरह की सलाह देते होंगे।

मैं अपने शौक़ और अभिरुचि में भाग लेता अवश्य था, किन्तु इनमें समय देने का मेरा उत्साह काफ़ी कम होता जा रहा था।

इस वर्ष फ़िर से यूनाइटेड स्कूल्स ऑर्गनाइजेशन की प्रतियोगिता का चयन का नोटिस आया।

इस बार स्पर्धा में भाग लेने वालों में विज्ञान के लड़के बहुत कम थे। कॉमर्स के भी ज़्यादा नहीं थे। ज़्यादा संख्या कला के छात्रों की ही थी।

लेकिन मैं इसमें भाग लेने से खुद को नहीं रोक पाया।

ढेरों छात्रों के बीच मेरा चयन फ़िर से हो गया।

हमारे साथ जाने वाले शिक्षक कला वर्ग के नागरिक शास्त्र के अध्यापक थे। उन्होंने मुझे साइंस का विद्यार्थी जान कर एक तरह से छात्रों के दल प्रमुख की अघोषित ज़िम्मेदारी दे दी।

हमारे ग्रुप में मुझसे बड़े, कक्षा दस और ग्यारह के छात्र भी थे,पर अध्यापक सारे निर्देश मुझे देकर, मेरे ही माध्यम से बाक़ी छात्रों को दिलवाते थे।

दिल्ली जाने के लिए लेखा विभाग से एडवांस राशि लेने के लिए उन्होंने एप्लीकेशन भी मुझसे ही लिखवाई। उन्हें ये अहसास था कि सब लड़कों में मैं ही अकेला ऐसा था जो दूसरी बार जा रहा था। वे मेरे अनुभव और भिज्ञता का लाभ उठा रहे थे।

मैंने अति आत्मविश्वास यानी ओवर कॉन्फिडेंस में आकर अर्जी अंग्रेज़ी में लिख दी। पर मैंने गलती से या अज्ञानवश पत्र में ऑन द स्पॉट कॉम्पिटिशन को " इन द पॉट" कॉम्पिटिशन लिख दिया। लड़के तो कुछ नहीं समझे पर टीचर और अकाउंट्स ऑफिसर हंसे। हमारे साथ जाने वाले अध्यापक जी ने पत्र में सुधार करते हुए धीरे से मुझे कहा- "अबे गधे, हम पॉट में नहीं, स्पॉट पर जाएंगे।" मुझे बहुत शर्मिंदगी उठानी पड़ी।

दिल्ली में हमारा ये तीन दिन का प्रवास पिछली बार की ही तरह बहुत अच्छा रहा।

देश के कौने- कौने से आए बहुत से विद्यार्थियों से परिचय हुआ। यहां मैंने देखा कि नामी गिरामी इंग्लिश स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थी भी कुछ मामलों में आम छात्रों जैसे ही हैं। खासकर लड़कियों के प्रति व्यवहार और आकर्षण को लेकर उनमें भी अजीब तरह की रुचि है।

मुझे ये बात बहुत ही रहस्य भरी लगती थी कि कुछ लड़कों में लड़कियों के प्रति जंगली बर्ताव करने की वृत्ति क्यों होती है। वे दूर से लड़कियों को देखते ही असहज हो जाते हैं, और उन पर कोई टिप्पणी करते हुए उनके समीप आना भी चाहते हैं।

कभी कभी ऐसा भी लगता कि कुछ लड़कियां स्वयं ऐसी उद्दंडता के लिए लड़कों को उकसाती हैं।

लेकिन लड़के- लड़कियों के आपसी संबंध में एक रहस्य हर समय नज़र आता।

एक दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू होने से पहले हम सभी पंडाल में एक घेरा बना कर बैठे थे। एक लड़की अपनी छोटी सी डायरी लेकर वहां आई और हम सब से कहने लगी कि वह कोई सर्वे कर रही है और हम सब से कोई सवाल पूछना चाहती है।

उसका सवाल था कि जब लड़के किसी लड़की को छेड़ते हैं तो उन्हें कैसा लगता है?

दूसरा सवाल लड़कियों से था कि यदि आपको कोई सड़क पर छेड़े या आप पर भद्दे कमेंट्स करे तो आपको कैसा लगता है।

मैं ध्यान देकर सुनने लगा कि लोग उसकी बात का क्या उत्तर दे रहे हैं। प्रायः सब कह रहे थे कि उन्हें अच्छा नहीं लगता पर मैं जानता था कि वे झूठ बोल रहे हैं, क्योंकि उनके व्यवहार से ऐसा नहीं लगता था।

मुझे विचित्र अनुभूति हुई जब एक लड़की ने इस प्रश्न के जवाब में कहा- जिस दिन सड़क पर मुझे कोई भी छेड़ने, घूर कर देखने या फिकरे कसने वाला नहीं मिला, मैं घर आकर अपना आइना फोड़ दूंगी।

लड़के- लड़की के बीच संबंध को लेकर मेरा रहस्य और भी गहरा गया। मुझे लगने लगा कि शायद लड़की को देख कर लड़कों का विचलित होना दिखावटी है और केवल इसीलिए है क्योंकि उन्हें आपस में साथ साथ रहने या मिलने से रोका जाता है। पर शायद दोनों ही वास्तव में एक दूसरे से मिलना चाहते हैं।

मेरा एक दोस्त कहता था कि मैंने कभी किसी लड़की को निर्वस्त्र देखा नहीं है इसीलिए मैं इस रिश्ते को नहीं समझता। पर मैं ये भी नहीं समझता था कि उसने किसी लड़की को बिना कपड़ों के क्यों देखा? इससे क्या होता है?

एक दूसरे को निर्वस्त्र देख कर क्या होता है ! निर्वस्त्र क्यों देखते हैं? यदि सब एक दूसरे को निर्वस्त्र ही देखना चाहते हैं तो हम कपड़े पहनते ही क्यों हैं?

दिल्ली में एक हॉस्टल में हमें ठहराने की व्यवस्था की गई थी। एक बड़े कक्ष में लाइन से आठ दस बिस्तर लगा कर हम लोग लेटे हुए थे। मेरे मित्र ने दोपहर की घटना का ज़िक्र करते हुए मुझसे पूछा "अच्छा, तूने किसी लड़के को निर्वस्त्र देखा है?"

"अरे पर क्यों? नंगा देखने से क्या होता है?" मैंने पूछा।

वह उपेक्षा से मुंह फेर कर सो गया।

उस बार भी अखिल भारतीय प्रतियोगिता में मुझे कोई पुरस्कार नहीं मिला। लेकिन कुछ श्रेष्ठ चित्रों को प्रोत्साहन प्रमाणपत्र मिला, उनमें मेरा भी नाम था।

बायोलॉजी की क्लास में धीरे- धीरे मैंने मनुष्य शरीर की रचना के बारे में पढ़ा और मुझे थोड़ी सी जानकारी मनुष्य के प्रजनन अंगों की भी हुई। प्रजनन संस्थान में स्त्री पुरुष युग्म भी पढ़ाया गया और धीरे- धीरे अब तक देखी- सुनी कई बातों के मतलब समझ में आने लगे।

अब कला या वाणिज्य के पुराने मित्र मिलते तो ये देख- सुन कर दंग रह जाते कि वे चटकारे ले लेकर जो बातें गुप्त रूप से आपस में किया करते थे, वो बाकायदा चित्र बना- बना कर शिक्षक द्वारा हमें पढ़ाई जा रही हैं।

लड़के और लड़की के शरीर के बारे में इस तरह की बातें सुनकर कभी- कभी लगता था कि जैसे प्यास में पानी पीने, भूख में खाना खाने या खुजली होने पर खुजाने पर जैसी अनुभूति होती है,वैसी ही किसी लड़की को ध्यान से देखने पर भी होती है।

यदि मैं अपने किसी दोस्त को किसी लड़की की ओर ध्यान से देखते हुए पाता था तो मुझे लड़की के बारे में, उसके शरीर की बनावट के बारे में दिलचस्पी हो जाती थी।

एक विचित्र बात और थी। जिस तरह ज़्यादातर सबको कुछ चीज़ों से घृणा या परेशानी होती है, मुझे उन से कोई कठिनाई नहीं होती थी। जैसे मुझे धूल और मिट्टी से कोई परहेज नहीं था।

कहीं मैदान में झाड़ू लगने पर जब धूल उड़ती है, उसकी गंध मुझे सुहाती थी।

यदि मेरा कोई दोस्त मुझे किसी लड़की को दिखा कर पूछता कि ये कैसी है,तो मैं उस लड़की का चेहरा ध्यान से देख कर बता देता था कि वह सुन्दर है या नहीं।

तात्पर्य ये कि मैं किसी की सुंदरता को उसके चेहरे की बनावट से ही आंका करता था।

किन्तु मुझे तब घोर आश्चर्य होता जब मेरे कई दोस्त लड़के ऐसी लड़कियों को सुन्दर कह देते जिनका चेहरा बिल्कुल भी आकर्षक नहीं होता था। हां,उनका शरीर भरा- भरा और पुष्ट होता जो मेरे विचार से सुंदरता का कोई मानदंड नहीं था।

मेरे एक दोस्त ने मुझे समझाया कि लड़की की सुंदरता उसके नैन नक्श से नहीं देखते,बल्कि उसकी छाती के उभारों से,और उसकी जांघों के पुष्ट होने से मानते हैं।

"क्यों?" मैंने पूछा।

दोस्त बोला- "उसे काम में वहीं से लिया जाता है,चेहरे मोहरे से नहीं।"

मुझे उसकी ये बात बिल्कुल समझ में नहीं आई।

पर मैं एक ही लड़की को अलग - अलग समय पर अलग - अलग दोस्तों को दिखा कर इस बात की पुष्टि करने की कोशिश किया करता कि सुंदरता सब का निजी निर्णय है या इसके सार्वभौमिक मानदंड हैं!

ज़्यादातर लड़के चेहरे की तुलना में पुष्ट छातियों और पुष्ट जांघों को प्राथमिकता दिया करते।

मुझे कुछ ही दिनों में ये भी पता चला कि पतली कमर, पतले होठ, बड़ी आंखें, नुकीली अंगुलियों को भी सुंदरता के मानदंड माना जाता है।

छुट्टियों में मुझे पानी के किनारे घूमना पसंद था। कई बार मैं तालाबों के किनारे से बड़े- बड़े मेंढक पकड़ लिया करता था। मुझे ये भी पता चला कि डॉक्टरी की पढ़ाई में मेंढक को काट कर उसका अध्ययन कराया जाता है,तो मैं पकड़े गए मेंढकों को ध्यान से देख कर उनके चित्र बनाया करता था।

नवीं कक्षा में भी मेरे अपनी कक्षा में सर्वाधिक अंक आए।

मैं दसवीं में आ गया। मेरी गतिविधियां चाहे बाक़ी छात्रों की तुलना में कैसी भी हों,परीक्षा ही किसी विद्यार्थी के मूल्यांकन का अंतिम हथियार होती है। परीक्षा में मेरा स्थान बरकरार था और इसलिए मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा। मेरे हर प्रयास को मान्यता मिलती गई।

सावन की फुहार के साथ स्कूल का नया सत्र आरंभ हुआ।

इस साल भी कुछ नई बातों से मेरा वास्ता पड़ा।

मुझसे बड़ा भाई अपनी आगे की पढ़ाई करने के लिए शहर छोड़ कर बाहर चला गया। उसे एक अच्छे कॉलेज में हॉस्टल में एडमिशन मिल गया।

विद्यालय में मुझ पर बड़े भाई की किसी तरह की रोकटोक तो कभी नहीं रही थी, फ़िर भी ये बात मुझे और आत्मविश्वास दे गई कि अब विद्यालय में मेरी स्थिति किसी से कुछ पूछने बताने की नहीं रही। मुझ पर भरोसा कायम था, घरवालों का भी, शिक्षकों का भी और दोस्तों का भी।

पिछले कई सालों से मैंने कोई फ़िल्म नहीं देखी थी। फ़िल्म देखना छोड़ने से पहले मेरी देखी प्रमुख फ़िल्में थीं - दोस्ती, सांझ और सवेरा, मेरे महबूब, जानवर। इसके अलावा कुछ कला फ़िल्में तथा उद्देश्यपूर्ण फ़िल्में मैंने पहले और देखी थीं जो स्कूल में दिखाई गई थीं। इनमें हीरामोती फ़िल्म ने मुझे काफ़ी प्रभावित किया था। घर में अख़बार के अलावा कुछ पत्रिकाएं भी आती थीं जिनमें फिल्मी पत्रिका माधुरी मैं विशेष चाव से पढ़ता था। घर पर लगभग सभी लोगों के शिक्षा से जुड़े होने और पुस्तकालय आदि की सहूलियत होने के कारण मैंने अन्य बहुत सी किताबें भी अब तक पढ़ डाली थीं।

मेरे पिता अंग्रेज़ी के मेरे अभ्यास को बनाए रखने के लिए मुझे कई अच्छी किताबें लाकर भी देते थे और पढ़ने के लिए उकसाते भी थे।

कई मशहूर अंग्रेज़ी लेखकों की प्रसिद्ध किताबें मैंने पढ़ डाली थीं। इन्हीं दिनों "माधुरी" पत्रिका ने पाठकों की पसंद और विशेषज्ञों की राय के आधार पर फ़िल्म क्षेत्र से "नव रत्न" चुनने का सिलसिला शुरू किया। फिल्में न देखते हुए भी मुझे इस पत्रिका से उस दौर के कई ट्रेंड्स मालूम पड़े।

अभिनेता राजेश खन्ना, जितेंद्र और अभिनेत्री साधना साल के सबसे लोकप्रिय सितारे चुने गए। इनमें से केवल साधना को ही मेरे महबूब फ़िल्म में मैंने पर्दे पर देखा था।

मैं दोस्तों की बातचीत से ही फ़िल्मों और कलाकारों के बारे में अपनी धारणा बनाता था।

इसी साल मेरा छोटा भाई भी मिडल स्तर की पढ़ाई गांव में पूरी करके वापस शहर आ गया,लेकिन उसका प्रवेश मेरे विद्यालय में न करा कर एक अन्य प्रतिष्ठित विद्यालय में कराया गया। इसका कारण केवल यही था कि वो विद्यालय पिछले कुछ सालों में तेज़ी से उभर कर शहर के प्रतिष्ठित विद्यालयों में स्थान बना चुका था।

मेरे बारे में भी मेरे पिता को राय दी गई कि मेरा भी स्कूल बदल दिया जाए।

मैंने एक अन्य बड़े और प्रतिष्ठित विद्यालय में प्रवेश फॉर्म भी भर दिया और उसकी चयन परीक्षा में मेरा दाखिला भी हो गया। पर अपने स्कूल से ट्रांसफर प्रमाणपत्र लेते समय वहां के प्रधानाचार्य जी ने ये कह कर मेरा आवेदन रद्द कर दिया कि अपने विद्यालय के अच्छे छात्रों को हम अकारण जाने नहीं देंगे। प्रधानाचार्य जी के आग्रह पर मैंने स्कूल बदलने का विचार बदल दिया।

मुझे इस बात से भी बल मिला कि इतने बड़े विद्यालय के प्रधानाचार्य ने मेरे पिता से मुझे स्कूल न छुड़वाने का अनुरोध किया।

इन बातों से मेरे आत्म विश्वास में और बढ़ोतरी हुई तथा मैं स्कूल की एक्टिविटीज में और भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने लगा। मेरे शिक्षक भी अब दो वर्गों में बंटे दिखाई देते थे।

कुछ तो कहते थे कि दिनों दिन तुम्हारी सफलताएं तुम्हारा नाम कर रही हैं। तुम विद्यालय का नाम भी रोशन कर रहे हो। पढ़ाई के साथ इन सब गतिविधियों में भी दक्षता हासिल करना बहुत अच्छी बात है।

पर दूसरी तरफ कुछ शिक्षक ऐसे भी थे जो कहते - ये सब बहुत कर लिया, अब बोर्ड की परीक्षा है,गंभीरता से केवल पढ़ाई पर ध्यान दो,वरना अपना लक्ष्य कभी पूरा नहीं कर पाओगे।

जो शिक्षक मुझे प्रिय थे, वे वही थे, जो मेरी मनपसंद बातों का समर्थन करते थे।

मुझमें कुछ भी नहीं बदला।

स्कूल आते समय हमें अपनी कॉलोनी से यूनिवर्सिटी के कैंपस में से गुजरते हुए पैदल ही आना होता था। हम आठ दस का समूह बना कर एक साथ आते।

रास्ते में विश्वविद्यालय के किसी भी विभाग में घुस कर कूलर से पानी पीते। कुछ शरारती छात्र बगीचे से फल तोड़ते। हमारे रास्ते में वाइस चांसलर का बंगला पड़ता था। उसमें लगे अमरूद तोड़ने के लिए हमारे एक दो मित्र उसकी दीवार पर चढ़ जाते।

हम सब के मन में ये ख्याल भी रहता था कि स्कूल की पढ़ाई के बाद एक दिन हम भी इस विश्वविद्यालय में पढ़ने आयेंगे।

यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार का बेटा भी हमारी क्लास में ही पढ़ता था और मेरा अच्छा दोस्त था। उसकी और मेरी दोस्ती में एक बात ये भी थी कि उसकी बड़ी बहन बहुत अच्छी चित्रकार थीं और आते जाते मैं उनके घर पर रुक कर उनके बनाए चित्रों को भी देखा करता था।

मेरा दोस्त अरुण पत्रमित्र बनाने का भी बहुत शौकीन था। कई देशों में उसके पत्रमित्र थे, वह उनकी बातें बताया करता था।लगातार तीसरे साल यूनाइटेड स्कूल्स ऑर्गनाइजेशन की प्रतियोगिताओं की सूचना आई। बहुत से मित्रों ने इसके चयन में किस्मत आजमाने की कोशिश की। डिबेट, चित्रकला, संगीत, भाषण, निबंध आदि में फ़िर सेंकड़ों छात्रों के बीच से सलेक्शन हुए। मेरा चयन फ़िर से हुआ।

इस बार नए छात्रों के दल के साथ फ़िर से हम लोग दिल्ली गए।सभी कार्यक्रम बहुत भव्यता के साथ दिल्ली के विज्ञान भवन में संपन्न हुए।

कॉन्वेंट स्कूल के बच्चों को देख कर शुरू शुरू में जो हीनता की भावना हम लोगों में आ जाया करती थी वह धीरे धीरे अब समाप्त हो गई थी क्योंकि मैं कई साल से यहां आ रहा था और उनके तौर तरीकों से परिचित हो रहा था।जिस हॉस्टल में लड़के ठहरे हुए थे उसके सामने ही एक छोटे भवन में लड़कियों को ठहराया गया था।

एक दिन सुबह शायद उस भवन में पानी आने की कुछ समस्या हो गई। सुबह सुबह दो लड़कियां खाली बाल्टियां लेकर हमारे हॉस्टल में पानी भरने आईं। पानी लेकर जब वे जा रही थीं तो बाल्टियां कुछ भारी हो जाने से उनसे उठ नहीं रही थीं। वे थक कर बार बार बाल्टी नीचे रखतीं।

तभी हमारे कमरे की खिड़की से एक लड़के के ज़ोर ज़ोर से गाना गाने की आवाज़ आई, वो गा रहा था- गोरे हाथों पे ना जुलम करो, हाज़िर है ये बंदा हुकुम करो... तुम्हारी कंवारी कलाई पे दाग ना लगे...

सब लड़के भीतर से बैठे बैठे मुंह छिपा कर हंस रहे थे। तभी एक लड़की पलट कर भीतर आई और बोली - "भैया, प्लीज़, बाल्टी रखवा कर आ जाओ ना।"

गाने वाला लड़का सकपका गया। उसे कोई उत्तर न देते बना, चुपचाप लड़कियों के साथ उनकी बाल्टी उठा कर रखवाने चला गया।

जब लौटा तो उसकी हालत खराब थी। लड़के हंस हंस कर अब उसे छेड़ रहे थे। उस दिन से सबने उस लड़के का नाम भैया ही रख दिया। हम लोग जितने दिन वहां रहे,सब उसे भैया ही कहते रहे।

लेकिन पंजाब के मोगा शहर से आया वो लड़का गाने का ज़बरदस्त शौक़ीन था। शाम को हम लोग खिड़की में खड़े थे तभी एक लड़की खुले बाल फैलाए सीढ़ियों से आती हुई दिखाई दी।

भैया ज़ोर ज़ोर से गाने लगा - तू मेरे सामने है, तेरी जुल्फें हैं खुली, तेरा आंचल है ढला, मैं भला होश में कैसे रहूं ...

तभी पीछे से हमारे कमरे का एक लड़का बोल पड़ा - अबे,चुप होजा, नहीं तो वो तेरे से चोटी करवाने को आ जाएगी। अगले दिन वो प्रतियोगिता होनी थी जिसमें मुझे भाग लेना था।



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